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गृह-जीवन
१२१ तो ज़रूर-जरूर मर जाऊँगी । तुम्हारे भाई की एक चिट्ठी आई है । उनसे कान खोलकर कह देना कि मेरी तन्दुरुस्ती यहाँ पर अच्छी है । वह गमियो मे मुझे ले जाने का व्यर्थ कष्ट न उठावे। अगर वे जबरदस्ती करेगे तो मैं ही जहर खाकर मर जाऊँगी ।"
ये सब पत्र सुरक्षित है। स्थानाभाव से हम उनको पूरा-पूरा उद्धृत करने में असमर्थ है । अतएव उनके चुने हुए वाक्यो को यहाँ लिखे देते है ।
"मेरा जन्म आर्य-कुल मे हुआ है पर एक माता के पेट से रावण जैसा पापी, विभीषण जैसे धर्मात्मा पैदा हुए थे। मैं आर्य माता की पुत्री पापिनी हूँ। तभी तो गृहलक्ष्मी नही, पिशाचिनी होकर ही इसको चरितार्थ कर रही हैं। कालिका पिशाचिनी सावित्री से तुम्हे अपनी जान अवश्य बचानी चाहिये।
"मेरी इच्छा की लगाम नही है। इसको आप पूरा करना चाहते है; परन्तु लाभ कुछ भी नहीं"।
"अच्छा है अगर आप प्रेम के दावानल को बुझाने को चेष्टा न करे; क्योंकि मेरे ऊपर आज तक किसी ने ऐसा करने की सलाह नही दी है। बस, अब अगर बुद्धि से काम ले तो अच्छा, नही तो "चिड़िया चुग गई खेत पछताओ कुछ नही होगा"।
एक पर्चे पर लिखा हुआ है-- "जरे दीवार जरा झाक के तुम देख तो लो। नातवॉ करते है दिल थाम के आहे क्यों कर । दिल वो जिगर खून हो चुके है, हवास तक अपने जा चुके हैवही मुहब्बत का हौसला है, हजार कोडे गो खा चुके है।" किसी को भेजे गये एक पत्र मे ये पक्तियाँ है---
"इसी उलफत के कूचे मे नफा पीछे जरर पहले, लगावे ऑख जो कोई करे जॉ का संरफ पहले"।