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विवाह आगरा निवासी गोस्वामी पं० ब्रजनाथ शर्मा और पं० हरिप्रपन्नाचार्यजी हरद्वार गये हुए थे। वहाँ से लौटते समय उन्होने सोचा कि चलो सहारनपुर की 'मेरी शारदासदन' नामक संस्था को देखने चले । समाचारपत्रो मे इस सस्था का नाम उपर्युक्त सज्जनो ने कई बार पढा था। सस्था के अधिष्ठाता पंडित मुकुन्दरामजी ने इन महाशयो को अपनी संस्था का निरीक्षण कराया। अधिष्ठाताजी ने एक लडकी से हारमोनियम पर एक भजन भी गवाया। गोस्वामीजी के जेब मे सत्यनारायणजी की कोई कविता पड़ी हुई थी, उन्होने वह उस लडकी को गाने के लिये दी । लड़की ने उस कविता को हारमोनियम पर गाकर सुनाया। तत्पश्चात् निरीक्षकगण सन्तुष्ट होकर सस्था से बाहर चले आये। बाहर आने पर जब ये लोग चलने लगे तो प. मुकुन्दराम बोले-"जिस कन्या की परीक्षा आपने ली थी, उसके लिये सुयोग्य वर की आवश्यकता है । यदि आपकी खोज मे कोई वर हो तो कृपया बतलाइये । गोस्वामी ब्रजनाथ शर्मा ने मजाक मे कह दिया--"हमारी तलाश मे एक वर है।" मुकुन्दरामजी ने पूछा-- "कौन ? गोस्वामी ने कहा--"सत्यनारायण कविरत्न" मुकुन्दरामजी ने कहा--"क्या वे ही, जिनकी कविताएँ पत्रों में निकला करती है ? गोस्वामीजी ने उत्तर दिया-"हाँ वे ही।" मुकुन्दरामजी ने प्रार्थना की कि अच्छी बात है सत्यनारायणजी को आप इस सम्बन्ध के लिये तैयार करे। इस प्रकार हँसी-हँसी मे ही १६ अप्रैल सन् १९१८ को विवाह हो गया।
गोस्वामी ब्रजनाथ शर्मा द्वारा कुछ दिन पत्र-व्यवहार होता रहा । यह खबर ‘मौजी" ने १६ जुलाई सन् १९१६ के "भारतमित्र" द्वारा सर्वसाधारण को निम्निलिखित शब्दो मे सुनाई थी--
'सहारनपुर की (मेरी) सम्राज्ञी शारदा-सदन की षोडशी सुन्दरी के