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पं० सत्यनारायण कविरत्न
श्रीमती सावित्रीजी ने अपने ५ । १२ । १८ के पत्र मे मुझे लिखा था:--
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*" पंडितजी मेरे कहने पर मुझे आमोदिनी के यहाँ पहुँचाने के लिए मुरादाबाद १० मार्च १९१६ को गये थे और मेरे कारण आमोदिनी से भी वह प्रसत्र थे; लेकिन कुछ कारणो से फिर वह उसके व्यवहार से अप्रसन्न
ये थे । मुझे भेजना भी बन्द कर दिया था ।"
श्रीमतीजी ने १० अप्रैल की जगह १० मार्च भ्रमवश लिख दिया मालूम होता है । अस्तु, पडितजी दिन-रात के कलह से तंग आकर श्रीमतीजी को रविनगर पहुँचा आये ।
आमोदिनीजी पर प्रसन्न होकर पडितजी ने यह कविता लिखी थी --
कली री अब तू फूल भई ।
मन मधुकर बहु आश लगाये तोसों प्रेममई |
fare सुभग अग दल प्रतिपल शिशुता झलक सिरानी । रहयो कछू अज्ञात तोहि जो अब ऐसी हठ ठानी || चार दिना को लहरि महरि है पुनि ऐसो करहु न जो पछितानी पाछे सोच-समझ के कीजै कारज जग स्वारथ को चेरो । सधे लोक-परलोक याहि सो सत्य सिखावन मेरो ॥
रीते के रीते । अवसर बीते ||
इस कविता की एक प्रति श्रीमती आमोदिनी और दूसरी श्रीमती सावित्री देवीजी के नाम भेजी गई थी ।
घाँधूपुर पहुँचने के बाद पडितजी को प्रतीत हुआ कि सावित्रीजी को रविनगर पहुँचाकर हमने भयकर भूल की । चिट्ठियाँ भेजनी शुरू कीं । ज़बाब नदारद ! २३ अप्रैल १९१६ को श्रीमती आमोदिनी देवी ने निम्नलिखित पत्र भेजा ।