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पं० सत्यनारायण कविरत्न
'सहसा विदधीत न क्रियाम्'* यदि किसी कारण विशेष से आपको अपने देर के मानसिक संकल्प में परिवर्तन करने की शीघ्रता हुई है, जैसा कि होना स्वाभाविक भी है, तो तद्विषय में इस शरीर की आन्तरिक कामना है--
"विधाता भद्रं ते वितरतु मनोज्ञाय विधये,
विधेयासुर्देवाः परमरमणीया परिणितिम् ।" अपने एक सेवक की तरह मुझे भी याद रखिये और सर्वदा कृपा बनाये रखिये।
आपका
सत्यनारायण
ता० २१ नवम्बर को श्रीमुकुन्दरामजी ने एक पत्र फिर सत्यनारायण जो को भेजा, जिसमे लिखा था :--
"हमने अन्य वर तलाश करने का विचार कर लिया है और एक अच्छा वर संस्कृत का विद्वान् भी मिल गया है जो इसी अगहन में विवाह भी कर सकेगा। इसलिये आप को सूचनार्थ अब लिखा जाता है कि हम विवश होकर दूसरी जगह करते है । हमारा इसमे कोई दोष नही ।
हमने ६ या ७ मास आपके कथनानुसार प्रतीक्षा भी की थी। जब आप सर्वथा सहमत नहीं हुए तब हम अन्यत्र करते है। xxx परन्तु हमारा प्रेम आपसे पूर्ववत् रहेगा । हमे भूल मत जाना ।"
इस प्रकार यह सम्बन्ध लगभग टूट हो गया था कि दैवयोग से उसमें उपन्यास जैसा परिवर्तन हुआ। ता०२६ । ११ । १५ को महाविद्यालय ज्वालापुर से पंडित पद्मसिह शर्मा ने निम्नलिखित पत्र गोस्वामीजी को लिखा*यह वाक्य सत्यनारायणजी ने लिखकर फिर काट दिया था।
-लेखक।