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श्रीब्रजभाषा
जिन पराग सो चौकि भ्रमत उत्सुकता प्रेरे । रहसि रहसि रसखान रसिक अलिगुंजि घनेरे ॥ बरन-बरन मे मोहन की प्रतिमूर्ति बिराजत । अक्षर आभा जासु अलौकिक अद्भुत भ्राजत ॥ सुरपद बरन सुभाव बिबिध रसमय अति उत्तम । शुद्ध संस्कृत सुखद आत्मजा अभिनव अनुपम ॥ देसकाल - अनुसार भाव निज व्यक्त करन मे । मजु मनोहर भाषा या सम कोउ न जग मे ॥ ईश्वर मानव-प्रेम दोउ इक संग सिखावति । उज्ज्वल श्यामलधार जुगल यो जोरि मिलावति ॥ भेद-भाव तजिवे की प्रतिभा जब रसएनी । योग गहत तिनसो तब सुन्दर बहत त्रिवेनी ॥ करी जाय यदि जासु परीक्षा सविधि यथारथ । याही में सब जग को स्वारथ अरु परमारथ ॥ बरनन को करिस्कत भला तिह भाषा - कोटी | मचल-मचलि जामे माँगी हरि माखन रोटी ॥ जाकौसो रस अवगाहत जाही मे आवै । कैसोहू गुनवान थाह जाकी नहि पावै ॥
रहयो यही अवसेस एक आरज जीवनधन | चिन्तनीय यह विषय तुमनु सो सब सज्जन गन ॥ बज और महाराष्ट्र सुभग गुजरात देस मे । अटक कटक पर्यन्त कहिय भारत असेस मे || एक राष्ट्रभाषा की त्रुटि जो पूरत आई । इतने दिन सो करति रही तुम्हरी सिवकाई ॥ सत समरथ कबियनु को कबिता प्रमान जामे । निरखहु नयन उघारि कहा लौ सबनु गिनामे ॥
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