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साहित्य-सम्मेलनो पर की गयी कविताएँ
कही-कही काल का ध्यान भुला दिया है। ब्रज से भगवान के द्वारका मे जाकर रहने और यशोदा के सन्देश भेजने के मध्य मे क्या इतना समय व्यतीत हो गया था कि वृन्दावन के तमाम कुज कट गये थे और वहाँ चौरस खेत बन गये थे । वही बात “कालीदह को ठौर जहँ, चमकत उज्ज्वल रेत---- काछी माली करत तहँ अपने-अपने खेत" के विषय मे भी कही जा सकती है। पर इस दोष से कविता की उपयोगिता बढ गई है--कोरे समालोचको की दृष्टि ही उस पर पड सकती है।"
साहित्य-सम्मेलनों पर की गयी कविताएँ सत्यनारायणजी हिन्दी साहित्य-सम्मेलन के तीन अधिवेशनो मे सम्मिलित हुए थे--द्वितीय, पचम और अष्टम । द्वितीय अधिवेशन प्रयाग मे हुआ था। इसके विषय मे स्वर्गीय मन्नन द्विवेदी ने लिखा था--द्वितीय हिन्दी-साहित्य-सग्मेलन का समय था। मित्र-मडली मेरी कुटी पर एकत्र थी। वही से मेयोहाल मे सम्मेलन देखने जाना था। प० केदारनाथजी, प० जीवनशङ्करजी, सम्पादक पन्नलालजी और मित्रवर बदरीनाथ उपस्थित थे। हम लोगो की प्रार्थना पर पंडित सत्यनारायणजी ने सम्मेलन मे पढने के लिये लच्छेदार ओज उपमा-प्रसाद पूर्ण पद तैयार किये थे । अपनी कविता को पढ़ने का ढङ्ग भी उन्ही को मालूम था । जिस समय आप पडाल मे सम्मेलन की स्वागत-कविता पढने लगे, लोग मुग्ध हो गये।" वह कविता निम्नलिखित थी :--
श्रीराधावर प्रेम-मूर्ति-जन-वत्सल ललित ललामा । बिगत छद्म सुख-सद्मसकल बिधि तव पद-पद्म प्रनामा । जन-मन-रञ्जन खल-दल-गञ्जन भञ्जन हित भूभारा। पुनि बन्दौ भारतभुवि जहँ प्रभु स्वयं लियो अवतारा ॥ श्रीपति-जन्म-स्थान शान्तिमय बेद वितान पुराना । गुन मण्डित पण्डित रत्ननि को जाको कोश महाना ॥