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प्रिसिपल डेविस का पत्र
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उत्कंठा थी कि सत्यनारायण इस अवसर पर अपनी कविता पढे, क्योकि मै जानता था कि उनकी कविता कितना अधिक प्रभाव डालती थी। इसलिये अपने एक विद्यार्थी के साथ मै उनके घर गया। दुर्भाग्यवश सत्यनारायण मुझे घर पर नही मिले। लेकिन वहाँ से लौटने के बाद ही वे.मेरे बॅगले पर आये और मुझसे कहा-"क्या आप मुझे तलाश करते थे ?" मैने कहा--मुझे इस बात की अत्यन्त उत्कठा है कि तुम इस अवसर पर एक कविता पढो ? उस वक्त मीटिग के समय को सिर्फ आध घटा बाकी था और सत्यनारायण की वह मूर्ति अब तक मेरी आँखो के सामने है जब कि वे इधर-उधर टहलते जाते थे। उनके होठ चल रहे थे और वे एक लाइन के बाद दूसरी लाइन कागज के एक ट्रकडे पर लिखते जाते थे। सभा मे सब से अधिक प्रभावपूर्ण बात कोई रही तो वह सत्यनारायण को कविता ही थी।"
यहाँ पर यह कह देना उचित और आवश्यक है कि सत्यनारायणजी का सब से बडा गुण उनकी असीम सरलता थी और यही उनकी सव से बडी निर्बलता थी। इसी कमजोरी के कारण लोग उनसे मन-माना लाभ उठाते थे । कभी उन्हें किसी वैद्य-सम्मेलन मे घसीट कर हर-बहेडे तथा आंवले की प्रशसा कराते थे तो कभी किसी रायबहादुर की तारीफ मे कुछ लिखवाते थे। यथा-- "जयति जयति भारती जुगल-पद-अलि मनभावन ।
जय उदारता रतनाकर के रतन सुहावन ॥"
किसी को नाराज करना तो वे जानते ही न थे, इसलिये कोई भी याचक उनके यहाँ से निराश होकर नही जाता था।
अपने प्रतिभा-प्रसूनों को इस प्रकार अट-सट आदमियो के सिर पर बखेरना सरस्वती देवी का एक प्रकार से निरादर करना था, किन्तु सत्यनारायण के हृदय-मन्दिर में मानवता का आसन सरस्वती से भी