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( १६ ) सत्यनारायण मनसा, वाचा, कर्मणा, हिन्दी के सच्चे उपासक थे, और अपनी वेषभूषा, आचार-व्यवहार और भाव-भाषा से प्राचीन हिन्दुत्व और भारतीयता के पूरे प्रतिनिधि थे। बी० ए० तक अंगरेजी पढकर और अँगरेजी के विद्वानों की संगति मे रात-दिन रहकर भी वे अँगरेजी से बचते थे। अनावश्यक अंगरेजी बोलने का हमारे नवशिक्षितो को कुछ व्यरान-सा हो गया है। इनकी हिन्दी में भी तीन तिहाई अंगरेजी की पुट रहती है। सत्यनारायण इस व्यापक दुर्व्यसन का अपवाद थे।
एक बार जब वे ज्वालापुर मे आये हुए थे, हिन्दी-भाषा-भाषी एक नवयुवक साधु से मैने उनका परिचय कराया । मै भूल से यह भी कह गया कि सत्यनारायणजी अंगरेजी के भी विद्वान् है। फिर क्या था, यह सुनते ही साधु साहब प्लुत स्वर मे हॉ.३ कहकर लगे अंगरेजी उगलने । यद्यपि वार्तालाप का विषय हिन्दी भाषा का प्रचार था। 'साधु महात्मा' बराबर अंगरेजी कते रहे और सत्यनारायणजी अपनी सीधी-सादी हिन्दी मे उत्तर देते रहे। कोई एक घंटे तक यह अगरेजी-हिन्दी-संग्राम चलता रहा, पर सत्यनारायणजी ने एक वाक्य भी अंगरेजी का बोलकर न दिया वे अपने प्रत से न डिगे । अन्त मे हारकर साधु साहब ने पूछाअंगरेजी बोलने को आपने कसम तो नहीं खा रक्खी ?, इन्होंने गम्भीरता से कहा-“मै किसी भी ऐसे मनुष्य के साथ, जो टूटी-फूटी भी हिन्दी बोल-समझ सकता है, अंगरेजी नहीं बोलता। हिन्दी बोलने समझने में सर्वथा ही असमर्थ किसी अंगरेजी-दाँ से वास्ता पड़ जाय तो लाचारी है, तब अंरेगजी भी बोल लेता हूँ।" उक्त साधु अंगरेजी के कोई बड़े विद्वान् न थे, इन्ट्रैस तक पढ़े थे। कुछ दिनों मद्रास की हवा खा आये थे और उन्हें अंगरेजी बोलने का संक्रामक रोग लग गया था।
सत्यनारायणजी ने समय अनुकूल न पाया। कविता के लिये यह समय वैसे ही प्रतिकूल है, फिर ब्रजभाषा की कविता से तो लोगो को कुछ राम नाम का वैर हो गया है। ब्रजभाषा की कविता का उत्कर्ष तो क्या, उसकी