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( २८ )
मनुष्य थे कि उन्हे बढाना मेरे जैसे साधारण व्यक्ति के सामर्थ्य से बाहर था । वस्तुत. बात उल्टी ही हुई है । सत्यनारायण के इस कार्य से स्वयम् मुझे आवश्यकता से अधिक विज्ञापन मिल गया है |
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सत्यनारायण की कविता कैसी होती थी और वे 'कविरत्न, थे या नही, इसका निर्णय मेरी बुद्धि के परे है । कविरत्न' शब्द का प्रयोग भी मैने केवल इसी कारण से किया है कि यह शब्द बार-बार प्रयुक्त होने पर उनके नाम का एक आवश्यक अंग ही बन गया था । वैसे स्वय सत्यनारायणजी इस प्रकार की उपाधि को व्याधि ही समझते थे । सत्यनारायण जितने अच्छे कवि थे इसलिये नही, बल्कि आगे चलकर जितने अच्छे कवि होते, उसके लिये वे कविता-मर्मज्ञो के श्रद्धा पात्र हे ।
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उनके अन्तिम दर्शन की बात में अभी तक नही भूला । इन्दौर के हिन्दी - साहित्य सम्मेलन से लौटकर वे घर आ रहे थे। स्टेशन से जब गाड़ी चलने लगी, मैने कहा" पंडितजी, एक बात हमारी मानियो । जब रेल चलन लगे तब चढियो ओर जौली खड़ी न होन पावै, उतर परियो ।" पंडितजी ने हंसकर कहा - "भैया तुम्हारी कहा जरूर मानिङ्गे ।"
गाड़ी चल दी और पंडितजी आखों से ओझल हो गये । तबसे उनकी तलाश में हैं । उनका पता नहीं चला। सम्मेलन के अधिवेशनों में उनका पता नहीं लगा, समाचार-पत्रों के आफिस में वे नहीं पाये गये और लेखकमंडल में उनको मूर्ति नहीं दीख पड़ी । वह स्वाभाविक सरलता, वह निःस्वार्थ साहित्य प्रेम वह मधुर हास्य और वह कोकिल स्वर हिन्दीजगत् में कही पर एकत्र ही मिले। कहीं आदर्शवादिता के आडम्बर में