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पं० सत्यनारायण कविरत्न
होगया था । इसीलिए सत्यनारायणजी के १६९०४ के पद्य या तो धार्मिक भावी से परिपूर्ण रहते थे अथवा शृङ्गाररस से सम्बन्ध रखते थे । सन् १९०५ से उनकी कविताओ मे देश-भक्ति के भावो का संचार होने लगा था । किसी कवि की कविता पर चारों ओर की स्थिति का कैसा प्रभाव पड़ता है, सत्यनारायण की कविता इसका एक अच्छा उदाहरण है ।
उन दिनों आर्यसमाजियो और सनातनधर्मियो मे किस प्रकार शास्त्रार्थ हुआ करते थे, उसका विशेष वर्णन करने की आवश्यकता नही है । ईश्वर साकार है, या निराकार - इस प्रश्न पर सिर फोडने की आवश्यकता अब जनता अनुभव नही करती । परन्तु उन दिनो शास्त्रार्थो की खूब धूम-धाम थी । इन शास्त्रार्थो से जनता का तो मनोरजन होता था, लेकिन आर्थिक लाभ होता था दोनो ओर के उपदेशको को और साथ ही मजा उडाते थे " भज राम कृष्ण गोपाल को इस ओ३म् से क्या होता है ।" गानेवाले सनातनी भजनीक और " मुर्दों का वहाना करके क्यो लेटर वक्स भरा है" -- गानेवाले आर्य भजनोपदेशक ।
जब आगरे मे शास्त्रार्थो की लहर जोर पर थी तो बहुत-मे नवयुवक विद्यार्थी उस वहाव मे पड गये थे । सत्यनारायण भी उन्ही में से एक थे । ( कभी सागर - सन्यासी आलाराम, कभी व्याख्यान - वाचस्पति दीनदयालुजी, कभी अनहद - शब्द - ब्रह्मज्ञान का उपदेश देनेवाले हसस्वरूप के व्याख्यान होते थे । कभी मुक़ाबले पर “आरिये महाशय" कट कट जाते थे ।) सत्यनारायणजी को तुकबन्दी करने का अच्छा मौका मिलता था । टूटी पेसिल से रद्दी कागज पर लिखी हुई कविता, फूटी चिमनी के धुंधले उजाले में, आँख फाड-फाड़कर पढते और वाहवाही लूटते थे । सनातनधर्मसभाओं मे आपकी खूब पूछ होती थी । सन् १९०० ई० में आपने एक पुस्तक लिखी थी जिसमे आर्य समाज का विरोध किया गया था ।
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