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विद्यार्थी जीवन
कठिन कष्ट बस मम माता अति सुनहु सच्चिदानन्द | कौन नसावे भला आप बिन सत्यनरायन के दुख द्वन्द ||
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इन पंक्तियो मे सत्यनारायण का प्रेम-पूर्ण स्वभाव प्रकट होता है । समालोचक महाशय कह सकते हैं कि “ इन पंक्तियों मे कुछ भी नवीनता नही है । वेही पुराने शब्द और वेही पुराने भाव है । कविता की दृष्टि से इनका महत्त्व नकुछ के बराबर है । ये तो पुराने ढर्रे की सूखी तुकबन्दियाँ है ।” यद्यपि समालोचक के इस कथन मे बहुत कुछ सत्यता होगी, तथापि इन पद्यो के यहाँ उद्धृत करने का उद्देश्य सत्यनारायण की कविता के महत्त्व को दिखलाना नही है । हम उनके स्वभाव पर प्रकाश डालना चाहते है, और साथ ही साथ उनकी कविता के क्रम विकास को भी प्रकट करना चाहते है | सत्यनारायणजी की 'सरोजनी - षट्पदी' एक उत्तम कविता है, और 'सुनियो सामलिया साह मेरी गज की-सी टेर' 'भगवन अपनो विरद सँवारो' और 'करियो आनंद आनंदकन्द' ये तुकबन्दियाँ 'सरोजनी - षट्पदी' से बीस वर्ष पहले की है । यह आशा करना व्यर्थ है कि इन तुकबन्दियों में 'सरोजनी - षट्पदी' की-सी सरसता और सुन्दरता हो । लेकिन विकास की दृष्टि से इन तुकबन्दियो का महत्त्व 'सरोजनीषट्पदी' से कदापि कम नही है । किसी नसेनी के नीचे के डडे भी उतने ही अधिक आवश्यक है जितना कि सब से ऊँचा डंडा । एक साथ छलाँग मारकर कोई पहाड़ पर नही चढ जाता । उसे धीरे-धीरे चढना होता है । पहाड़ की किसी ऊँची चोटी पर बैठे हुए आदमी को देखने से उतना मनोरंजन नही होता जितना उसे धीरे-धीरे चढते हुए देखकर होता है । जिन सत्यनारायणजी ने सन् १९१८ ई० मे इन्दौर के हिन्दी साहित्यसम्मेलन के मंच पर 'श्रीगान्धी - स्तव' जैसी उच्च कोटि की कविता पढकर सहस्रो मनुष्यो को मंत्र-मुग्ध कर दिया, उन्होंने ही बीस वर्ष पहले अपने एक बीमार मित्र के अच्छे हो जाने के लिए निम्नलिखित तुकबन्दी की थी :--