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विद्यार्थी-जीवन
अछनेरे के पं० नारायणप्रसाद सारस्वत, जो उन दिनो ताजगज के स्कूल मे अध्यापक थे, लिखते है -
"मैं पहली मार्च सन् १८६३ ई० को स्कूल ताजगज मे पहुँचा । उस समय पं० सत्यनारायणजी स्कूल मे नही थे। इतना स्मरण है कि वे दर्जा २ या ३ मे भर्ती हुए थे। उनकी प्रारम्भिक शिक्षा उनकी माता ओर बाबा रघुबरदासजी के द्वारा हुई थी। जहाँ तक मुझे याद है, ये पट्टी-बुद्दिका लेकर नही आये थे-कागज पर ही लिखते थे। स्वभाव सरल तथा कुछ गम्भीरतायुक्त था। सदा प्रसन्न रहा करते थे। प्राय बहुत चपल न थे; लेकिन गोबर-गणेश भी न थे। कभी किसी बालक से पिटकर भी शिकायत नही करते थे। एक दिन मैने देखा कि एक लड़का इन्हे मार रहा है । मैने मारनेवाले लडके को बुला कर दण्ड देना चाहा, यह देखकर सत्यनारामण मेरे पास आये और उसे क्षमा कर देने के लिये मेरे पैरो पर गिर पडे । इनकी माताजी प्रायः प्रतिदिन स्कूल मे मिठाई लेकर आती थी। ये पहले अपनी कक्षा के बालको को थोडी-थोडी मिठाई देकर तब आप खाते थे। इन्हे कहानी-किस्से बहुत पसन्द थे और बहुत-सी छोटी-छोटी कहानियाँ याद भी थी। स्कूल मे आने के पहले ही इन्हे १०० श्लोक कण्ठाग्र थे। उन दिनो मेरे पास “हिन्दी-बङ्गवासी" और "सुधा-सागर" नामक समाचार-पत्र आते थे। एक दिन मैने अपना बस्ता खोला और उसमे से 'बङ्गवासी' का एक पुराना अंक, जिसमे टेसू का एक विचित्र गीत था, निकालकर सत्यनारायण को पढने के लिए दिया । उस समय दोपहर की छुट्टी थी। कुछ देर के बाद सत्यनारायण ने यह गीत पढकर मुझे सुनाया और मुझ से नम्रतापूर्वक प्रार्थना की कि थोडी देर के लिए यह अङ्क मुझे दे दीजिए, मै इसकी नकल करना चाहता हूँ। मैने प्रसन्नतापूर्वक वह अङ्क दे दिया। सत्यनारायण ने तीसरे दिन ही यह गीत याद करके मुझे सुना दिया।
श्रीमान् प० अम्बिकादत्त व्यास द्वारा सम्पादित "पीयूष-प्रवाह" पत्र की दो फाइले मेरे पास थी। उनमे "डूवि क्यो न मरे उल्लू चुल्लू भरि