________________
प० सत्यनारायण कविरत्न
पानी में" समस्या की बहुत-सी पूर्तियां थी । एक दिन मैने ये फाइले भी सत्यनारायण को दिखलाई । उस दिन से वे प्राय प्रतिदिन कुछ समय के लिए उन्हे देखते और कितनी ही पूर्तियाँ कण्ठाग्र करके सुनाते । इससे मु ज्ञात हो गया कि उनकी रुचि कविता की ओर है । मैं स्वय भी कवितासम्बन्धी जोतियाँ करता था उन्हे सत्यनारायण को अवश्य दिखलाता था । सत्यनारायण उन्हे कई-कई बार पढ़ते थे । एक वार मैने "चातुरै न चाहिए कि पातुरा सों अटकै समस्या की निम्नलिखित पूर्ति " सुधा - सागर" नामक समाचार-पत्र के लिए की थी
५
-
दामन ही हेत नित प्रोति ये बढावति है,
दामन ही हेत रोड़ वार वार मटकै । तीय से छुड़ावति सनेह गेह नासवि है, गुरु-जन-लाज काज याके फन्द फंसे सुख -मीन न सुहावत है,
याके सब सटके ।
मोन धरि बैठो तक हिये मांझ खटके ।
कायर कपूत कर कुटिल कुचाली करे,
चातुरै न चाहिए कि पातुरा सों अटके ||
यह पूर्ति मैने सत्यनारायण को दिखलाई। उन्होंने इसे पढकर परि के स्थान पर धारि मेरी सम्मति लेकर बना दिया । उसी दिन से मुझे सत्यनारायण पर विशेष प्रीति उत्पन्न हो गई । उस समय ये प्रधान अध्यापक के पास थे; परन्तु मैं उनकी आज्ञा लेकर इन्हें स्वयं पढाने लगा । वार्षिक परीक्षा निकट थी, इसलिये रात को भी मै प्रधान अभ्यापक महाशय के तीसरे और चौथे दर्जो को पढाता था । उन दिनों सत्यनारायण संध्या समय कभी-कभी मेरे साथ रोजे मे टहलने चले जाते थे। रोज़े के विषय मे बहुत से प्रश्न किया करते थे । यथा :
इतने ऊँचे मीनार बनाने के लिये इतनी लम्बी लकड़ी सीढ़ी बनाने को कहाँ से आई होगी ? "