Book Title: Karmagrantha Part 6
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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श्री आत्मानन्द जैन ग्रन्थमाला के टीका सहित सप्ततिका को प्रमाण माना है और अन्त की दो गाथाएँ वर्ण्य विषय के बाद आई हैं, अतः उनकी गणना नहीं करने पर ग्रन्थ का नाम सप्ततिका सार्थक सिद्ध होता है । ग्रन्थकर्ता
नवीन पांच कर्मग्रन्थ और उनकी स्वोपज्ञ टीका के प्रणेता आचार्य श्रीमद् देवेन्द्रसूरि का विस्तृत परिचय प्रश्रम कर्मग्रन्थ की प्रस्तावना में दिया जा चुका है । अतः सप्ततिका के कर्ता के बारे में ही विचार करते हैं ।
सप्ततिका के रचयिता कौन थे, उनके माता-पिता कौन थे, उनके दीक्षागुरु और विद्यागुरु कौन से अपने से पिधूनि को पवित्र बनाया था आदि प्रश्नों का उत्तर प्राप्त करने के कोई साधन उपलब्ध नहीं हैं । इस समय सप्ततिका और उसकी जो टीकाएँ प्राप्त हैं, वे भी कर्ता के नाम आदि की जानकारी कराने में सहायता नहीं देती हैं।
सप्ततिका प्रकरण मूल की प्राचीन ताडपत्रीय प्रति में चन्द्रि महत्तर नाम से गर्भित निम्नलिखित गाथा देखने को मिलती हैगाहमा सयरीए चंदमहत्तरमयानुसारीए । टीगाइ नियमियाणं एगुणा होइ नउई उ ॥
लेकिन यह गाथा भी चन्द्रषि महत्तर को सप्ततिका के रचयिता होने की साक्षी नहीं देती है। इस गाथा से इतना ही ज्ञात होता है कि चन्द्रषि महत्तर के मत का अनुसरण करने वाली टीका के आधार से सप्ततिका की गाथाएँ (७० के बदले बढ़कर ) नवासी (८९) हुई हैं। इस गाथा में यही उल्लेख किया गया है कि सप्ततिका में गाथाओं की वृद्धि का कारण क्या है ? किन्तु कर्ता के बारे में कुछ भी नहीं कहा गया है । आचार्य मलयगिरि ने भी अपनी टीका के आदि और अन्त में इसके बारे में कुछ भी संकेत नहीं किया है । इस प्रकार सप्ततिका के कर्ता के बारे में निश्चय रूप से कुछ भी नहीं कहा जा सकता है ।