Book Title: Karmagrantha Part 6 Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti JodhpurPage 15
________________ कर्म साहित्य में सप्ततिका का स्थान ____ अब तक के प्राप्त प्रमाणों से यह कहा जा सकता है कि श्वेताम्बर और दिगम्बर जैन परम्पराओं में उपलब्ध कर्म-साहित्य का आलेखन अग्रायणीय पूर्व की पांचवीं वस्तु के चौथे प्राभृत और ज्ञानप्रवाद तथा कर्मप्रवाद पूर्व के आधार से हुआ है। अग्रायणीय पूर्व के आधार से षट्खंडागम, कर्मप्रकृति, शतक और सप्ततिका-इन ग्रन्थों का संकलन हुआ और ज्ञानप्रवाद पूर्व की दसवीं बस्तु के तीसरे प्राभत के आधार से कषायप्राभृत का संकलन किया गया है। उक्त ग्रन्थों में से कर्मप्रति ग्रन्थ श्वेताम्बर परम्परा में तथा वषायाभृत और षट्वंडागम दिगम्बर परम्परा में माने जाते हैं तथा कुछ पाठभेद के साथ शतक और सप्ततिका- ये दोनों ग्रन्थ दोनों परम्पराओं में माने जाते हैं। गाथाओं या श्लोकों की संख्या के आधार से ग्रन्थ का नाम राखने की परिपाटी प्राचीनकाल से चली आ रही है। जैसे कि आचार्य शिवशर्म कृत 'शतक'; आचार्य सिद्धसेन कृत द्वात्रिशिका प्रकरण; आचार्य हरिभद्रसूरि कृत पंचाशक प्रकरण, विशति-विशतिका प्रकरण, षोडशक प्रकरण, अष्टक प्रकरण, आचार्य जिनचल्लभ कृत पद्धशीति प्रकरण आदि अनेकानेक रचनाओं को उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है। सप्ततिका का नाम भो इसी आधार से रखा जान पड़ता है । इसे षष्ठ कर्म ग्रन्थ भी कहने का कारण यह है कि वर्तमान में कर्मग्रन्थों की गिनती के अनुसार इसका क्रम छठा आता है। ___कर्मविषयक मूल साहित्य के रूप में माने जाने वाले पांच ग्रन्थों में से सप्ततिका भी एक है । सप्ततिका में अनेक स्थलों पर मत-भिन्नताओं का निर्देश किया गया है। जैसे कि एक मतभेद गाथा १६-२० और उसकी टीका में उदयविकल्प और पदवृन्दों की संख्या बतलाते समय सथा दूसरा मतभेद अयोगिकेवली गुणस्थान में नामकर्म कीPage Navigation
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