Book Title: Karmagrantha Part 6
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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पाँच कार्मग्रन्थों की संक्षेप में जानकारी देने के बाद अब सप्ततिका ( षष्ठ कर्मग्रन्थ ) का विशेष परिचय देते हैं ।
सप्ततिका परिचय
सप्ततिका के विचारणीय विषय का संक्षेप में संकेत उसकी प्रथम गाथा में किया गया है। इसमें आठ मूल कर्मों व अवान्तर भेदों के कपनबाओं का स्वतन्त्र रूप से व जीवसमास, गुणस्थानों और मार्गणास्थानों के आश्रय से विवेचन किया गया है और अन्त में उपशमविधि और क्षपणविधि बतलाई है |
कर्मों की यथासम्भव दस अवस्थाएँ होती हैं । उनमें से तीन मुख्य हैं—बन्ध, उदय और सत्ता । शेष अवस्थाओं का इन तीन में अन्तर्भाव हो जाता है । इसलिए यदि यह कहा जाये कि ग्रन्थ में कर्मों की विविध अवस्थाओं, उनके भेदों का इसमें सांगोपांग विवेचन किया गया है तो कोई अत्युक्ति नहीं होगी ।
ग्रन्थ का जितना परिमाण है, उसको देखते हुए वर्णन करने की शैली की प्रशंसा ही करनी पड़ती है । सागर का जल गागर में भर दिया गया है । इतने लघुकाय ग्रन्थ में विशाल और गहन विषयों का विवेचन कर देना हर किसी का काम नहीं है। इससे ग्रन्थकर्ता और ग्रन्थ- दोनों की महानता सिद्ध होती है ।
पहली और दूसरी गाथा में विषय की सूचना दी गई है । तीसरी गाथा में आठ मूल कर्मों के संवेध भंग बतलाकर चौथी और पांचवीं गाथा में क्रम से जीवसमास और गुणस्थानों में इनका विवेचन किया गया है । छठी गाथा में ज्ञानावरण और अन्तरायकर्म के अवान्तर भेदों के संवेध भंग बतलाये हैं। सातवीं से नौवीं गाथा के पूर्वार्द्ध तक ढाई गाथा में दर्शनावरण के उत्तरभेदों के संवेध भंग बतलाये हैं और नौवीं गाथा के उत्तरार्द्ध में वेदनीय, आधु और गोत्र कर्म के संवेध