Book Title: Kahe Kalapurnasuri Part 04 Gujarati
Author(s): Muktichandravijay, Munichandravijay
Publisher: Shanti Jin Aradhak Mandal
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सहस्ररूपाय ।
भगवान को अनेक नामों से स्मरण करने की हमारी परंपरा है । उन्हीं में एक नाम है : अरिहंत । जैन परंपरा के अनुसार णमोक्कार मंत्र अरिहंत के नमन से शुरु होता है।
- हिन्दु वह है जो सब को नमन करता है । जो अहिन्दु है वह नमन नहीं करता । उदंड अहिन्दु है ।
सभी नामों में प्रभु देखना हिन्दु - परंपरा है ।।
अरिहंतों के बाद फिर दूसरों को (सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, साधु) भी नमस्कार किया गया ।
हिन्दुचेतना नमन करने में रुकती नहीं, पुस्तकों के कीटों को नहीं, लेकिन आचारवंत आचार्यों को यहां प्रणाम है ।
आचार्यों तक पहुंचानेवाले उपाध्याय है । जिन्होंने मुझे ज्ञानमंदिर में पहुंचाया, उन उपाध्यायों को नमन ।
संसार के सभी साधुओं को भी नमन । हिन्दु प्रज्ञा की यही व्याख्या है ।
સકલ લોકમાં સૌને વંદે, નિંદા ન કરે કેની રે; वाय-आय-मन निर्भर राणे, धन-धन ४ननी तेनी ३.'
- नरसैंयो रात को १२ बजे मैं यहां आया । मुझे जल्दी नींद नहीं आती । अच्छा तो नहीं हूं। अच्छे की संगति में तो रह सकता हूं। मैंने वहां पड़ी हुई दो-तीन पुस्तकें पढी । शुद्ध श्रावक के द्वारा प्रकाशित स्तवन थे । उसमें प्रारंभ था : 'नैनं छिन्दन्ति' गीता का यह श्लोक था । उस में कबीर, मीरां की भी कृतियां थी।
લાંબું તિલક તાણે તે વૈષ્ણવ છે, એમ નથી કહ્યું, પણ પરની પીડા જાણે તે વૈષ્ણવ છે. અઢાર પુરાણોનો સાર પરની પીડા પરિહરવી તે છે.
'अष्टादश पुराणेषु, व्यासस्य वचनद्वयम् ।
परोपकारः पुण्याय, पापाय परपीडनम् ॥' (हालांकि पुराण व्यास ने बनाये है, ऐसा मैं नहीं मानता) यही हिन्दु-प्रज्ञा का नवनीत है ।
नरसिंह ने विष्णु के नाम पर पूरा जैन दर्शन ही डाल दिया २७२ * * * * * * * * * * * * * sd, scापूभूरि-४
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