Book Title: Kahe Kalapurnasuri Part 04 Gujarati
Author(s): Muktichandravijay, Munichandravijay
Publisher: Shanti Jin Aradhak Mandal
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है । नरसिंह के सामने शेक्सपियर फिक्का है ।।
धर्म परिषद में किसी जैन ने कहा था : अभी धर्म में परिवर्तन की जरुरत है।
उस वक्त मैं १८ वर्ष का था, मैंने प्रतिरोध करते हुए कहा : धर्म में परिवर्तन संभवित नहीं है।
धर्म अपरिवर्तनीय है वैसे अखंड है। यहां मिली-जुली संस्कृति नहीं है, एक है ।।
संस्कृति की कभी कोकटेल नहीं हो सकती । फिटकरी और दूध का मिश्रण नहीं हो सकता । संस्कृति का काम है : एक करना । भेद करता है वह धर्म नहीं, संप्रदाय है ।
धर्म राजनैतिक संविधानिक नहीं है कि उसे हम चाहे जैसे बदल दें ।
तुलसीदास कहते है : सभी नमनीयों को मैं नमन करता हूं। यही हिन्दु संस्कृति है । यही जैन-वैष्णव प्रज्ञा है ।
नेहरु ने डिस्कवरी की है । वाकई में भारत माता की डिस्कवरी हो ही नहीं सकती । जिसने भारत माता में माता नहीं, जमीन का टुकड़ा देखा, वे क्या डिस्कवरी करेंगे ?
. प्रभु के अनंत नाम-कीर्तन करने से प्रज्ञा निर्मल होती है ।
अरिहंत हरे... अरिहंत हरे... अरिहंत हरे... अरिहंत हरे...
हरण करता है वह हरि है, हर है । मैं हरि और हर - दोनों का आदर करता हूं । हरद्वार और हरिद्वार - दोनों नामों में मेरी सम्मति है। केदारनाथ जाना है तो हरिद्वार है । बद्रिनाथ जाना हे तो हरद्वार है ।
अतुल अनादि अनंत हरे, व्यापक दिशि-दिशि भय अंत हरे, जगदीश जिनेन्द्र जयवंत हरे, भव-भयहारी भगवंत हरे.
मैं समझाने के लिए नहीं, याद दिलाने के लिए आया हूं। अपने परिवार में आया हूं । अपने तीर्थ में आया हूं ।
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