Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 4
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 13
________________ २. शरीरोंका स्वामित्व २. शरीर नामकर्मका लक्षण स.सि./८/११/३८६/६ यदुदयादात्मनः शरीरनिर्वृतिस्तच्छरीरनाम । -जिसके उदयसे आत्माके शरीरकी रचना होती है वह शरीर नामकर्म है । (रा. वा./८/११/३/५७६/१४) (गो. क./जी.प्र./३३/२८/२०)। ध.६/१,६-१,२८/१२/६ जस्स कम्मस्स उदएण आहारवग्गणाए पोग्गलरखधा तेजा-कम्मइयवग्गणपोग्गलखंधा च सरीरजोग्गपरिणामेहि परिणदा संता जीवेण संवझति तस्स कम्मक्खंधस्स शरीरमिदि सण्णा । -जिस कर्म के उदयसै आहार वर्गणाके पुद्गल स्कन्ध तथा तेजस और कामण वर्गणाके पुद्गल स्कन्ध शरीर योग्य परिणामों के द्वारा परिणत होते हुए जीवके साथ सम्बद्ध होते हैं उस कर्म स्कन्धकी 'शरीर' यह संज्ञा है। (ध. १३/५,५,१०१/३६३/१२) ३.शरीर व शरीर नामकर्मके भेद प. ख, ६/१६-१/सू. ३१/६८ जंतं सरीरणामकम्मं तं पंचविहं ओरालियसरीरणामं वेउवियसरीरणामं आहारसरीरणामं तेयासरीरणामं कम्मइयसरीरणामं चेदि ३१ -जो शरीर नामकर्म है वह पाँच प्रकार है-औदारिक शरीरनामकर्म, वैक्रियिक शरीर नामकर्म, आहारकशरीर नामकम, तैजस शरीरनामकर्म और कार्मण शरीर नामकर्म ।३१। (ष, खं. १३५,सू. १०४/३६७) (ष. खं. १४/५,६/सू. ४४/४६) (प्र. सा./म./१७१ ) ( त. सू./२/३६) (सं.सि./८/११/३८६/१) (4.सं./२/४/४७/६) (रा. वा./५/२४/ १/४८८/२) (रा. वा./८/११/३/५७६/१५) (गो. क./जो. प्र./३३/ २८/२०) ४. शारीरोंमें प्रदेशोंकी उत्तरोत्तर तरतमता त. सू./२/३८-३६ प्रदेशोऽसंख्येयगुणं प्राक्तैजसाद ॥३८॥ अनन्त गुणे परे ॥३६॥ स. सि./२/३८-३६/१६२-१९३/८,३ औदारिकादसंख्येयगुणप्रदेश वैक्रियिकम् । वैक्रियिकादसंख्येयगुणप्रदेशमाहारकमिति । को गुणकारः । पल्योपमासंख्येय भागः । (१९२/८) आहारकात्तैजस प्रदेशतोऽनन्तगुणम्, तैजसात्कार्मणं प्रदेशतोऽनन्तगुणमिति । को गुणकारः । अभव्यानामनन्तागुणः सिद्धानामनन्तभागः। - तैजससे पूर्व तीन तीन शरीरों में आगे-आगेका शरीर प्रदेशोंकी अपेक्षा असरण्यातगुणा है।३८। परवर्ती दो शरीर प्रदेशोंकी अपेक्षा उत्तरोत्तर अनन्तगुणे हैं ।३१। अर्थात औदारिकसे वै क्रियिक शरीर असंरण्यातगुणे प्रदेशवाला है, और वैक्रियिकसे आहारक शरीर असंख्यातगुणे प्रदेशवाला है । गुणकारका प्रमाण पत्यका असंख्यातवाँ भाग है ( १९८) परन्तु आहारक शरीरसे तैजस शरीरके प्रदेश अनन्तगुणे हैं, और तेजस शरीरसे कार्मण शरीरके प्रदेश अनन्तगुणे अधिक है। अभव्यों से अनन्तगुणा और सिद्धोका अनन्तवाँ भाग गुणकार है। (रा. वा./ २/३८-३६/४,१/१४८/४,१५) (घ.६/४,१,२/३७/१) (गो.जी./जी, प्र./२४६/५१०१०) और भी दे. अल्पमहुव) गो. जी./जी. प्र./२४६/५१०/१५ यद्येवं तर्हि वै क्रियिकादिशरीराणा उत्तरोत्तर प्रदेशाधिक्येन स्थूलत्वं प्रसज्यते इत्याशक्य परं पर सूक्ष्म भवतीत्युक्तं । यद्यपि वै क्रियिकाइयुत्तरोत्तरशरीराणां बहुपरमाणुसंचयत्वं तथापि बन्धपरिणति विशेषेण सूक्ष्मसूक्ष्मावगाहनसंभवः कार्पसपिण्डायःपिण्डबन्न बिरुध्यते खत्विति निश्चेतव्यं । - प्रश्नयदि ओदारिकादि शरीरों में उत्तरोत्तर प्रदेश अधिक हैं तो उत्तरोत्तर अधिकाधिक स्थूलता हो जायेगी। उत्तर-ऐसी आशंका अयुक्त है, क्योंकि वे सब उत्तरोत्तर सूक्ष्म है । यद्यपि वैक्रियिक आदि शरीरोंमें परमाणुओं का संचय तो अधिक-अधिक है तथापि स्कन्ध बन्धनमें विशेष है । जैसे-कपासके पिण्डसे लोहेके पिण्डमें प्रदेशपना अधिक होनेपर भी क्षेत्र थोड़ा रोकता है तै से जानना । १. शरीरके लक्षण सम्बन्धी शंका समाधान रा.वा./२/३६/२-३/१४५/२५ यदि शीर्यन्त इति शरीराणि घटादीनामपि विशरणमस्तीति शरीरत्वमतिप्रसज्येत; तन्नः कि कारणम् । नामकर्मनिमित्तत्वाभावात् । विग्रहाभाव इति चेतः नः रूढिशब्देष्वपि व्युत्पत्ती क्रियाश्रयात ।। - प्रश्न-यदि जो शीर्ण हों वे शरीर हैं, तो घटादि पदार्थ भी विशरणशील हैं, उनको भी शरीरपना प्राप्त हो जायेगा। उत्तर-नहीं, क्योंकि उनमें नामकर्मोदय निमित्त नहीं है। प्रश्न-इस लक्षणसे तो विग्रहगतिमें शरीरके अभावका प्रसंग आता है ? उत्तर-रूढिसे वहाँपर भी कहा जाता है। ७. शरीरमें करण( कारण )पना कैसे सम्भव है ध.६/४,१.६८/३२५/१ करणेसु ज पढम करणं पंचसरीरप्ययं तं मूलकरणं । कधं सरीरस्स मूलतं । ण, सेसकरणाणमेदम्हादो पउत्तीए शरीरस्स मूलत्तं पडिविरोहाभावादो। जीवादो कत्तारादो अभिण्णतणेण कत्तारत्तमुपगयस्स कध करणतं । ण जीवादो सरीरस्स कथंचि भेदुवलंभादो। अभेदे वा चेयणत्त-णिच्चत्तादिजीवगुणा सरीरे वि होति । ण च एवं, तहाणुवलं भादो। तदो सरीरस्स करणत्तं ण विरुज्झदे । सेसकारयभावे सरीरम्मि संते सरीरं करण मेवेत्ति किमिदि उच्चदे। ण एस दोसो. सुत्ते करणमेवे त्ति अवहारणाभावादो। -करणों में जो पाँच शरीररूप प्रथम करण है वह मूल करण है। प्रश्न-शरीरके मूलपना कैसे सम्भव है। उत्तर-चू कि शेष करणोंकी प्रवृत्ति इस शरीरसे होती है अतः शरीरको मूल करण मानने में कोई विरोध नहीं आता। प्रश्न-कर्ता रूप जीवसे शरीर अभिन्न है, अतः कपिनेको प्राप्त हुए शरीरके करणपना कैसे सम्भव है। उत्तर-यह कहना ठीक नहीं है । जीवसे शरीरका कथंचित् भेद पाया जाता है। यदि जीबसे शरीरको सर्वथा अभिन्न स्वीकार किया जावे तो चेतनता और नित्यत्व आदि जीवके गुण शरीरमें भी होने चाहिए। परन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि शरीरमें इन गुणोंकी उपलब्धि नहीं होती। इस कारण शरीरके करणपना विरुख नहीं है। प्रश्न-शरीरमें शेष कारक भी सम्भव है। ऐसी अवस्थामें शरीर करण ही है, ऐसा क्यों कहा जाता है ? उत्तर-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, सूत्र में 'शरीर करण ही है' ऐसा नियत नहीं किया गया है। ८. देह प्रमाणस्व शक्तिका लक्षण पं. का./त. प्र./२८ अतीतानन्तरशरीरमाणावगाहपरिणामरूपं देह मात्रत्वं । - अतीत अनन्तर ( अन्तिम ) शरीरानुसार अवगाह परि__णामरूप देहप्रमाणपना होता है। ५. शरीरोंमें परस्पर उसरोसर सूक्ष्मता व तरसम्बन्धी शंका समाधान त. सू./२/३७,४० परं परं सूक्ष्मम् ॥३७१ अप्रतिधाते ।४०॥ स.सि.२/३७/१९२।१ औदारिक स्थूलम, ततः सूक्ष्म वैक्रियिकम् ततः सूक्ष्म आहारकम्, ततः सूक्ष्मं तैजसम, तेजसारकार्मणं सूक्ष्ममिति। -आगे-आगेका शरीर सूक्ष्म है ।३७कार्मण व तैजस शरीर प्रतीघात रहित है।४। अर्थात् औदारिक शरीर स्थूल है, इससे वैक्रियिक शरीर सूक्ष्म है । इससे आहारक शरीर सूक्ष्म है, इससे तेजस शरीर सूक्ष्म है और इससे कार्मण शरीर सूक्ष्म है। २. शरीरोंका स्वामित्व १. एक जीवके एक कालमें शरीरोंका स्वामित्व त. सू./२/४३ तदादीनि भाज्यानि युगपदेकास्मिन्नचतुर्थ्यः।४। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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