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शब्द
प्रश्न- नगारा आदिके शब्दोंकी भाषा संज्ञा कैसे है। (अर्थात् इन्हें भाषा वर्गणासे उत्पन्न क्यों कहते हो ) ! उत्तर- नहीं, क्योंकि, भाषा के समान होनेसे भाषा है इस प्रकारके उपचारसे नगारा आदिके शब्दोंकी भी भाषा संज्ञा है ।
७. शब्द पुद्गलकी पर्याय है आकाशका गुण नहीं
.का./मू./७१ सो स्कंधोधो परमाणु संग भादो पु तेसु जायदि सद्दो उप्पादिनो गियदो |७ शब्द स्कन्धजन्य है । स्कन्ध परमाणु दलका संघात है, और वे स्कन्ध स्पर्शित होनेसे - टकराने से शब्द उत्पन्न होता है; इस प्रकार वह ( शब्द ) नियत रूपसे उत्पाद्य है | ७६ अर्थात् पुगलकी पर्याय है । (प्र. सा./मू./९३२)। "
प्रश्न- शब्द आकाश
रा.वा./५/१०/१२/४६८/४ इन्दो हि आकाशगुणः माताभिघातनाद्यनिमित्तवशात् सर्वत्रोत्पद्यमान इन्द्रियप्रत्यक्षः अन्यद्रव्यासंभवी गुणितमाकाशं सर्वगतं गमयति, गुणानामाधार पर सन्त्रस्यादितिः तन्नः किं कारणम् । पौद्गलिकत्वात् । पुद्गलद्रव्य विकारो हि शब्दः नाकाशगुणः । तस्योपरिष्टाद युक्तिर्वक्ष्यते । का गुण है. यह वायुके अभिघात आदि बाह्य निमित्तों से उत्पन्न होता है. इन्द्रियक्ष है, गुण है, अन्य क्यों नहीं पाया जाता, निराधार गुण रह नहीं सकते अतः अपने आधारभूत गुणी आकाशका अनुमान कराता है ? उत्तर- ऐसा नहीं है क्योंकि शब्द पौगलिक है। शब्द पुद्गल द्रव्यका विकार है आकाशका गुण नहीं। ( और भी थे. चूर्त 4)।
प्र. सा./त. म./१३२ शम्यस्यापीत्यगुवं न खल्वानीयं । ....अनेकद्रव्यात्मकलपर्यायत्वेनाभ्युपगम्यमानत्वात् । ... तावदर्तव्यगुणः शब्द: अमूर्त मध्यस्यापि श्रवणेन्द्रिय विषयापद्रव्यनुगोऽपि न भवति। ततः कादा चित्रात नित्यत्वस्य न शब्दस्यास्ति गुण...न च गलपर्यायाने पादस्म पृथिवोस्कन्धस्यैव स्पर्धानादीन्द्रियविष यत्वस्अप प्राणेन्द्रियविषयत्वात्। - १. ऐसी शंका नहीं करनी चाहिए कि शब्द भी इन्द्रियग्राह्य होनेसे गुण होगा; क्योंकि वह विचित्रताके द्वारा विश्वरूपत्व ( अनेकानेक प्रकारत्व ) दिखलाता है, फिर भी उसे अनेक द्रव्यात्मक पुद्गल पर्यायके रूपमें स्वीकार किया गया है । २. शब्द अमूर्त द्रव्यका गुण नहीं है क्योंकि...अमूर्त व्यके भी अपनेन्द्रियकी विषयभूतता आ जायेगी । ३. शब्द मूर्त द्रव्यका गुण भी नहीं है... अनित्यश्वसे निके उस्थापित होनेसे ( अर्थात् शब्द कभी-कभी ही होता है और निश्य नहीं है, इसलिए शब्द गुण नहीं है। ४. यदि शब्द पुद्गज्ञकी पर्याय हो तो वह पृथिवी स्कन्धकी भाँति स्पर्शनादिक इन्द्रियों का विषय होना चाहिए अर्थात् जैसे पृथिवी स्कन्धरूप पुगल पर्याय सर्व इन्द्रियोंसे ज्ञात होती है उसी प्रकार शब्दरूप पुद्गल पर्याय सभी इन्द्रियोंसे ज्ञात होनी चाहिए (ऐसा तर्क किया जाये तो ऐसा भी नहीं है क्योंकि पानी ( पुगलकी पर्याय है, फिर भी)का विषय नहीं है (प्र. सा./ता. . १३०/१८६/११)।
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८. शब्दको जाननेका प्रयोजन
पं.का./ता.वृ./११/१३४/१० इदं सर्वं यतत्त्वमेतस्माद्भिन्नं शुद्धात्मतत्त्वमुपादेयमिति भावार्थ: यह सर्व तत्व देय है। इससे भिन्न शुद्धात्म ही उपादेय है ऐसा भावार्थ है।
भी
★ शब्द की अपेक्षा द्रव्यमें भेदाभेददे * शब्द अल्प हैं और अर्थ अनन्त हैं-दे आगन/ ४ ।
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शब्द अर्थ सम्बन्ध - दे. आगम / ४ ।
शब्द कोश - जैनाचार्योंने कई शब्दकोश बनाये हैं- १. आ. पूज्यपाद ( ई. श. १) कृत शब्दावतार | २. श्वे. हेमचन्द्रसूरि ६. १०८८-११०३) सिम शब्दानुशासन । ३. श्वे. म चन्द्रसूरि (ई. १०८८ - १९७३) कृत अभिधानचिन्तामणि कोश (हैमी मानवाला कोश) ४. श्वे. हेमचन्द्रसूरि (ई. १०००११०३) कृत] अनेकार्थसंग्रह . . हेमचन्द्रसूरि (ई. १०००० ११०३) कृत देशीनाममाता ६, पं. आशाधर (ई. ११०३-१२४३) कृत 'अमरकोषकी टीका' रूप क्रिया-कलाप । ७ आचार्य शुभचन्द्र (ई. १५९६ - १५५६ ) द्वारा रचित शब्द चिन्तामणि । आ० महाकवि (ई. १९०४) द्वारा रचित शब्दानुशासन ६. पं. बनारसीदास (ई. १५८७-१८४४) १०५ दोहा प्रमाण भाषा नाम माला। (ती./४/२५२) । १०. मा. बिहारी लाल (ई. १६२४(१९३४) कृत वृहद् जैन शब्दार्णव ।
शब्द नयदे, नय / III / ६ ।
शब्दपुनरुक्त निग्रह स्थान --- दे. पुनरुक्त ।
शब्द प्रमाण दे. आगम ।
शब्द ब्रह्म - दे. ब्रह्म । शब्द लिंगज ज्ञान दे.
श्रुतज्ञान/III/
शब्दवान् हैमवत क्षेत्रके महुमध्य भागस्थ फूट आकार वाला नामिगिरि प५/३
शब्द समय - दे. समय ।
शब्दाकुलित आलोचना आलोचना
शब्दाद्वैत
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- दे. अद्वैतवाद ।
शब्दानुपात -स. सि. / ०/११/६३१/१० व्यापारकरान्पुरुषान्प्रत्य भ्युत्कारिसकादिकरणं शब्दानुपात जो पुरुष किसी उद्योगमें जुटे हैं उन्हें उद्देश्य र पसिना आदि शब्दानुपात है ( देशगत के अतिचारके प्रकरण में ) ( रा. बा. /०/३१/३/४५६/५)।
शब्दानुशासन - दे. शब्दकोश । शब्दावतार शब्दकोश
परिषद्
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शमप्र सा./ता / ०/१/९० स एव धर्म स्वात्मभावनोत्यमुखा मृतशीतजलेन कामक्रोधादिरूपाग्निजनितस्य संसारदुखदाहस्योपशमकत्वात् शम इति । - वह धर्म ही शम है, क्योंकि स्वात्मभावनासे उत्पन्न सुखामृत शीतल जलके द्वारा कामक्रोधादिसे उत्पन्न संसार दुखकी दाहको विनाश करनेवाला है। शयनासन शुद्धि - दे. शुद्धि । शय्या परिषहस. सि./६/६/४२३ / १९ स्वाध्यायध्यानाध्यश्रमपरिखेदितस्य मौहूर्तिकीं खरविषमप्रचुरशर्कराकपालसङ्कटा तिशीतोष्णेषु भूमिप्रदेशेषु निद्रामनुभवतो यथाकृतै कपार्श्व दण्डायितादिशामनप्राणिमाधापरिहाराय पतितदारुवद्ध व्यपगतासुवदपरिवर्त मानस्य ज्ञानभावनावहितचेतसोऽनुष्ठितव्यन्तरादिविविधोपदप्यचलितविग्रहस्या नियमितकाला तत्कृतबाधा श्रममाणस्य शय्यापरिषहक्षमा कथ्यते । --जो स्वाध्याय ध्यान और अध्व श्रमके कारण थककर कठोर, feeम तथा प्रभुर मात्रामें कंकड़ और खप्परोंके टुकड़ोंसे व्याप्त ऐसे अतिशीत तथा अत्युष्णभूमि प्रदेशोंमें एक मुहूर्त प्रमाण निद्राका अनुभव करता है, जो यथाकृत एक पार्श्व भागसे या दण्डाति आदि रूपसे शयन करता है, करवट लेनेसे प्राणियोंको होनेवाली बामाका निवारण करने के लिए जो गिरे हुए लकड़ी के
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