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शब्द
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दसदिसावा चेव गच्छति । विदिया
२. शब्दके भेद स. सि./३/२४/२६४-२६५/१२ शब्दो द्विविधो भाषालक्षणो विपरोत-
श्चेति ।...अभाषात्मनो द्विविधः प्रायोगिको वैनसिकश्चेति । प्रायोगिकश्चतुर्धा ततविततधनसौषिरभेदात । -भाषारूप शब्द
और अभाषारूप शब्द इस प्रकार शब्दोंके दो भेद हैं ।...अभाषात्मक शब्द दो प्रकारके हैं--प्रायोगिक और वैससिक । ...तथा तत, वितत, घन और सौषिरके भेदसे प्रायोगिक शब्द चार प्रकार है। (रा. वा./५/२४/२-१/४८/२१), (पं. का./ता. वृ./७४/१३५/६), (द्र. सं./टी./१६/५२/२)। ध.१३/५,५,२६/२२१/६ छबिहो तद-विदद-घण-सुसिर-घोस-भास भेएण । - वह छह प्रकार है-तत वितत, घन, सुषिर, घोष और भाषा।
* भाषात्मक शब्दके भेद व लक्षणं-दे. भाषा।
३. अभाषात्मक शब्दोंके क्षण स. सि./५/२४/२६५/३ वैससिको बलाहकादिप्रभवः तत्र चर्मतनननिमित्तः पुष्करभेरीददुरादिप्रभवस्ततः । तन्त्रीकृतवीणासुघोषादिसमुद्भवो विततः। तालघण्टालालनाद्य भिघातजो घनः । वंशशङ्गादिनिमित्तः सौषिरः । = मेघ आदिके निमित्तसे जो शब्द उत्पन्न होते हैं वे वैन सिक शब्द हैं । चमड़ेसे मढ़े हुए पुष्कर, भेरी और ददुरसे जो शब्द उत्पन्न होता है वह तत शब्द है । ताँत वाले वीणा और सुघोष आदिसे जो शब्द उत्पन्न होता है वह वितत है । ताल, घण्टा और लालन आदिके ताड़नसे जो शब्द उत्पन्न होता है वह धन शब्द है तथा बांसुरी और शंख आदिके फूकनेसे जो शन्द उत्पन्न होता है वह सौषिर शब्द है । (रा. वा./५/२४/४-५/४८५/२७)। ध, १३/५.५,२६/२२१/७ तत्थ तदो णाम वीणा-तिसरिआलावणिवव्वीस-खुक्खुणादिजणिदो। वितदो णाम भेरी-मुदिंगपटहादिसमुन्भूदो । घणो णाम जयघंटादिघणदव्याण संघादुट्ठाविदो। सुसिरो णाम वस-संख-काहलादिजणिदो। घोसो णाम घस्समाणदबजणिदो। -वीणा, त्रिसरिक, बालापिनी, बव्वीसक और खुक्रवुण आदिसे उत्पन्न हुआ शब्द तत है । भेरी, मृदंग और पटह आदिसे उत्पन्न हुआ शब्द वितत है। जय घण्टा आदि ठोस द्रव्यों के अभिवातसे उत्पन्न हुआ शब्द घन है। वंश, शंख और काहल आदिसे उत्पन्न हुआ शब्द सौषिर है। घर्षणको प्राप्त हुए द्रव्यसे उत्पन्नहुआ शब्द घोष है। पं का./ता. बृ./७६/१३५/६ ततं बीणादिकं ज्ञेयं विततं पटहादिकं । घन तु कंसतालादि सुषिर वंशादिकं विदुः। वैससिकस्तु मेघादिप्रभवः । - वीणादिके शब्दको तत, ढोल आदिके शब्दको वितत, मंजीरे तथा ताल आदिके शब्द को पन और बसी आदिके शब्दको सुषिर कहते हैं। स्वभाव से उत्पन्न होनेवाला वैससिक शब्द बादल आदिसे होता है। (द्र. सं./टी./१६/१२/६) । * द्रव्य व माव वचन-दे० वचन । *क्रियावाची व गुणवाची आदि शब्द-दे. नाम/३ ।
५.शब्दके संचार व श्रवण सम्बन्धी नियम ध. १३/५,५,२६/२२२/६ सह-पोग्गला सगुप्पतिपदेसादो उच्छलिय दसदिसामु गच्छमाणा उकस्सेण जाव लोगंत ताव गच्छति ।...सव्वे ण गच्छति, थोवा चेव गच्छति । तं जहा-सद्दपज्जाएण परिणदपदेसे अर्णता पोग्गला अवट्ठाणं कुणं ति। विदियागासपदेसे तत्तो अणं तगुणहीणा । तिदियागासपदेसे अणं तगुणहीणा। चउत्थागासपदेसे अणं तगुणहीणा । एवमणतरोवणिधाए अणं तगुणहीणा होदूण गच्छति जाव सब दिसासु वादवलयपेरंतं पत्ताति। परदो किण्ण गच्छति । धम्मास्थिकायाभावादो। ण च सव्वे सह-पोग्गला एगसमएण चेव लोगत गच्छति त्ति णियमो, केसि पि दोसमए आदि कादूण जहणेण अंतोमुत्तकालेण लोगंतपत्ती होदि ति उवदेसादो। एवं समयं पडि सहपज्जाएण परिणदपोग्गलाणं गमणाबट्ठाणाणं परूवणा कायबा। ध. १३/५.५,२६/गा. ३/२२४ भासागदसमसेडिं सहजदि मुणदि मिस्सयं
सुणदि । उस्सेडिं पुण समुणेदि णियमा पराघादे ।। ध. १३/५,५,२६/१२६/१ समसेडीए आगच्छमाणे सद्द-पोग्गले परघावेण
अपरबादेण च सुणदि। तं जहा-जदि परघादो ण स्थि तो कंडुज्जुवाए गइए कण्णछि पवितु सद्द-पोग्गले सणादि । पराधादे संते वि मुणे दि, दो समसेडीदो पराधादेण उस्सेडि गंतूण पुणो पराघादण समसेडीए कण्णछिद्द पविट्ठाणं सह-पोग्गलाणं सवणुवलं भादो। उस्से डि गदसह-पोग्गले पुण पराधादेणेव मुणेदि, अण्णहा तेसि सवणाणुववत्तीदो-१. संचार सम्बन्धी-शब्द पुद्गल अपने उत्पत्ति प्रदेशसे उछलकर दसों दिशाओं में जाते हुए उत्कृष्ट रूपसे लोकके अन्त भाग तक जाते हैं ।...सन नहीं जाते थोड़े ही जाते हैं। यथाशब्द पर्यायसे परिणत हुए प्रदेश में अनन्तपुद्गल अव स्थित रहते हैं। ( उससे लगे हुए ) दूसरे आकाश प्रदेशमें उनसे अनन्त गुणे हीन पुदगल अवस्थित रहते हैं। तीसरे आकाश प्रदेशमें उससे लगे हुए अनन्तगुणे हीन पुदगल अवस्थित रहते हैं। चौथे आकाश प्रदेशमें उससे अनन्तगुणे हीन पुद्गल अवस्थित रहते हैं। इस तरह वे अनन्तरोपनिधाकी अपेक्षा बातवलय पर्यन्त सम दिशाओं में उत्तरोत्तर एक-एक प्रदेशके प्रति अनन्तगुणे हीन होते हुए जाते हैं । प्रश्न-आगे क्यों नहीं जाते । उत्तर-धर्मास्तिकायका अभाव होनेसे वातवलयके आगे नहीं जाते हैं। ये सब शब्द पुद्गल एक समयमें ही लोकके अन्त तक जाते हैं, ऐसा कोई नियम नहीं है। किन्तु ऐसा उपदेश है कि कितने ही शब्द पुद्गल कमसे कम दो समयसे लेकर अन्तर्मुहूर्त काल के द्वारा लोकके अन्तको प्राप्त होते हैं। इस तरह प्रत्येक समय में शब्द पर्यायसे परिणत हुए पुद्गलोंके गमन और अवस्थानका कथन करना चाहिए।
२. श्रवण सम्बन्धी-"भाषागत समश्रेणिरूप शब्दको यदि सुनता है तो मिश्रको ही . नता है। और उच्छ्रणिको प्राप्त हुए शब्दको यदि सुनता है तो मसे परधातके द्वारा मुनता है"।३। समश्रेणि द्वारा आते हुए शब्द पुदगलोंको परघात और अपरघात रूपसे मुनता है। यथा-यदि परघात नहीं है तो माणके समान ऋजगतिसे कर्ण छिद्र में प्रविष्ट हुए शब्द पुद्गलोंको सुनता है। पराघात होनेपर भी सुनता है क्योंकि, समश्रेणिसे पराघात द्वारा उच्छ्र णिको प्राप्त होकर पुनः पराघात द्वारा समश्रेणिसे कर्णछिद्रमें प्रविष्ट हुए शब्द पुद्गलोंका श्रवण उपलब्ध होता है। उच्छ्रणिको प्राप्त हुए शब्द पुनः पराघातके द्वारा ही सुने जाते हैं अन्यथा उनका सुनना नहीं बन सकता है।
.. ढोक आदिके शब्द कथंचित् भाषात्मक हैं ध.१४/५,६,८३/६९/१२ कथं काहलादिसहाणं भासाववएसो। ण, भासो __व भासे त्ति उवयारेण कालादिसहाणं पि तव्वयएससिद्धीवो ।
४. शब्दमें अनेकों धौंका निर्देश स्या. म./२२/२७०/१७ शन्देष्वपि उदात्तानुदात्तस्वरितविवृतसंवृतघोषबदघोषतात्पप्राणमहाप्राणतादयः तत्तदर्थप्रत्यायनशक्त्यादयश्चावसेयाः । = पदार्थों की तरह शब्दों में भी उदात्त, अनुदात्त. स्वरित, विवृत, संवृत, घोष, अबोष, अस्पप्राण, महाप्राण आदि पदार्थोंके ज्ञान कराने की शक्ति आदि अनन्त धर्म पाये जाते हैं।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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