Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 4
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 12
________________ शरीर कुन्देके समान या मुदकेि समान करवट नहीं बदन्नता, जिसका चित्त ज्ञान भावनामें लगा हुआ है, व्यन्तरादिकके द्वारा किये गये नाना प्रकारके उपसर्गोंसे भी जिसका शरीर चलायमान नहीं होता और जो अनियतकालिक तत्कृत बाधाको सहन करता है उसके शय्या परिषहजय कही जाती है। (रा. वा./६/६/१६/६१०/१८), (चा. सा./११६/३)। शरण-रा. वा./8/9/२/६००/१५ शरणं द्विविध-लौकिकं लोकोत्तरं चेति । तत्प्रत्येक त्रिधा-जीवाजीव मिश्रकभेदात् । तत्र राजा देवता वा लौकिकं जीवशरणम्, प्राकारादि अजीवशरणम् । ग्रामनगरादि मिश्रकम् । पञ्च गुरवो लोकोत्तरजीवशरणम्, तत्प्रतिबिम्बाद्यजीवशरणम्, सधर्मोपकरणसाधुवर्णो मिश्रकशरणम् । = शरण दो प्रकारका है-एक लौकिक दूसरा लोकोत्तर । तथा वे दोनों ही जीव, अजीव और मिश्रकके भेदसे तीन-तीन प्रकारके हैं । राजा देवता आदि लौकिक जीवशरण हैं। कोट, शहर, पनाह आदि लौकिक अजीव शरण हैं और कोट खाई सहित गाँव नगर आदि लौकिक मिश्र शरण हैं । पाँचों परमेष्ठी लोकोत्तर जीव शरण हैं। इन अरहंत आदिके प्रतिबिंब आदि लोकोत्तर अजीव शरण हैं। धर्म सहित साधुओंका समुदाय तथा उनके उपकरण आदि लोकोत्तर मिश्र शरण हैं। (चा. सा./१७८/४) शरावती-वर्तमान श्रावस्ती जो अयोध्याके पास है। (म. प्र./प ५० पं. पन्नालाल) शरीर-जीवके शरीर पाँच प्रकारके माने गये है-औदारिक, वै क्रियिक, आहारक, तैजस व कार्माण ये पाँचों उत्तरोत्तर सूक्ष्म हैं। मनुष्य तिर्यचका शरीर औदारिक होनेके कारण स्थूल व दृष्टिगत है। देव नारकियों का वै क्रियिक शरीर होता है। तैजस व कार्मण शरीर सभी संसारी जीवों के होते हैं । आहारक शरीर किन्हीं तपस्वी जनों के ही सम्भव हैं। शरीर यद्यपि जीवके लिए अपकारी है पर मुमुक्षु जन इसे मोक्षमार्गमें लगाकर उपकारी बना लेते हैं। शरीरों के लक्षण सम्बन्धी शंका समाधान । शरीरों की अवगाहना व स्थिति ।-दे. वह वह नाम । । शरीरोंका वर्ण व द्रव्य लेश्या -दे. लेश्या /३। शरीरकी धातु उपधातु । -दे. औदारिक । शरीरमें करण (कारण) पना कैसे सम्भव है। जीवको शरीर कहनेको विवक्षा। -दे. जीव/१/३ । द्विचरम शरीर। -दे. चरम। देह प्रमाणत्व शक्तिका लक्षण शरीरोंका स्वामित्व एक जीवके एक कालमें शरीरोंका स्वामित्व । शरीरोंके स्वामित्वको आदेश प्ररूपणा । तीर्थकरों व शलाका पुरुषोंके शरीरको विशेषता । -दे. वह वह नाम। मुक्त जीवोंके चरम शरीर सम्बन्धी। -दे. मोक्ष/५ । साधुओंके मृत शरीरकी क्षेपण विधि। -दे. सहलेखना/६/१॥ महामत्स्यका विशाल शरीर। -दे. संमूर्छन । शरीरोंकी संघावन परिशातन कृति । (ध.१/३५५-४५१) पाँचों शरीरोंके स्वामियों सम्बन्धी सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव, अल्प बहुत्व प्ररूपणाएँ । -दे. वह वह नाम। शरीरके अंगोपांगका नाम निर्देश। -दे. अंगोपांग । शरीरका कथंचित् इष्टानिष्टपना शरीरको कथंचित् इष्टता अनिष्टता। -दे.आहार/II/६/२। १ | शरीर दुखका कारण है। शरीर वास्तवमें अपकारी है। | धर्मार्थीके लिए शरीर उपकारी है। शरीर ग्रहणका प्रयोजन। शरीर बन्ध बतानेका प्रयोजन । | योनि स्थानमें शरीरोत्पत्तिक्रम। -दे. जन्म/१५ शरीरका अशुचिपना। -दे. अनुप्रेक्षा/११६ । * * * * | शरीर व शरीर नामकर्म निर्देश शरीर सामान्यका लक्षण। शरीरोंकी उत्पति कर्माधीन है। -दे, कर्म।। शरीर नामकर्मका लक्षण । शरीर व शरीर नामकर्मके भेद औदारिकादि शरीर -दे.वह वह नाम। प्रत्येक व साधारण शरीर। -दे. वनस्पति । शायक व च्युत, च्यावित तथा त्यक्त शरीर । -दे. निक्षेप/५। शरीर नामकर्मकी बन्ध उदय व सत्त्व प्रकपणाएँ तथा तत्सम्बन्धी शंका समाधान । -दे, वह वह नाम । जीवका शरीरके साथ बन्ध विषयक। -दे, बन्ध । जीव व शरीरकी कथंचित् पृथक्ता। -दे, कारक/२ जीवका शरीर प्रमाण अवस्थान । -दे. जीव/३ शरीरों में प्रदेशोंकी उत्तरोत्तर तरतमता। शरीरोंमें परस्पर उत्तरोत्तर सूक्ष्मता तथा तत्सम्बन्धी शंका समाधान। * १. शरीर व शरीर नामकर्म निर्देश १.शरीर सामान्यका लक्षण स, सि./६/३६/१९१/४ विशिष्टनामकर्मोदयापादितवृत्तीनि शीर्यन्त इति शरीराणि । -जो विशेष नामकर्म के उदयसै प्राप्त होकर शीर्यन्ते अर्थात् गलते हैं ये शरीर हैं। घ. १४/५,६,९१२/४३४/१३ सरीरं सहायो सील मिदि एयट्ठो..अणं ताणतपोग्गलसमबाओ सरीरं। -शरीर, शील और स्वभाव ये एकार्थवाची शब्द हैं ।...अनन्तानन्त पुद्गलों के समवायका नाम शरीर है। द्र. सं./टी./३/१०७/३ शरीर कोऽर्थः स्वरूपम् । - शरीर शब्दका अर्थ स्वरूप है। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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