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जैन पारिभाषिक शब्दकोश
सूत्रागमः, तदभिधेयश्चार्थ एवार्थागमः ।
(अनु ५५० म वृ २०२)
अर्थावग्रह अवग्रह का एक प्रकार। व्यञ्जनावग्रह की अपेक्षा कुछ व्यक्त जाति, द्रव्य, गुण आदि की कल्पना से रहित अर्थ का ग्रहण। व्यञ्जनावग्रहः""ततो मनाग व्यक्तं जातिद्रव्यगुणकल्पनारहितमर्थग्रहणम् अर्थावग्रहः। (जैसिदी २.१२ वृ) .....अवरोप्परसंसग्गो जया तया गिण्हइ तमत्थं ॥ सामन्नमणिद्देसं सरूवनामाइकप्पणारहियं ।.....
(विभा २५१,२५२) अर्धचक्रवाल श्रेणि आकाशश्रेणि का एक प्रकार । वह श्रेणि जिसमें केवल पुद्गल (परमाणु, द्विप्रदेशी स्कन्ध आदि) अर्धमंडलाकार (अर्धगोलाकार) में घूमकर उत्पन्न होता है। (देखें चित्र पृ ३४१) 'अद्धचक्कवाल' त्ति चक्रवालार्द्धरूपा, सा चैवम्।
(भग २५.९१ वृ प ८६८) अर्धतृतीय द्वीप जंबूद्वीप, धातकीखण्ड और अर्द्धपुष्कर द्वीप का समुच्चय। इसे मनुष्यक्षेत्र (अढाई द्वीप) भी कहा जाता है।
(प्रज्ञा २.२९) (द्र समयक्षेत्र) अर्धनाराच संहनन वह अस्थिरचना, जिसमें हड्डी का एक छोर मर्कटबन्ध से बंधा हुआ होता है तथा दूसरा छोर कील से बंधा हुआ होता है। यत्र त्वेकतो मर्कटबन्धो द्वितीयपाओँ कीलिका तदर्द्धनाराचम्।
(स्था ६.३० वृप ३३९) अर्द्धपर्यंका निषद्या का एक प्रकार। एक पैर को साथल (सक्थि) पर टिकाकर बैठना। अर्द्धपर्यंडा-ऊरावेकपादनिवेशनलक्षणेति।
(स्था ५.५० वृ प २८७) अर्पणा
(भिक्षु ४.७) (द्र अर्पित)
अर्पित अनन्तधर्मात्मक द्रव्य के प्रतिपादन में की जाने वाली एक धर्म की विवक्षा। अनेकात्मकस्य वस्तुनः प्रयोजनवशात् यस्य कस्यचिद्धर्मस्य विवक्षया प्रापितप्राधान्यमर्थरूपमर्पितम्पनीतम्।
(तवा ५.३२) अर्पितानर्पित द्रव्यानुयोग का एक प्रकार। द्रव्य के मुख्य और गौण धर्म का विचार करना। 'अप्पियाणप्पिए'त्ति द्रव्यं ह्यर्पितं-विशेषितं यथा जीवद्रव्यं, किंविधं ?-संसारीति, संसार्यपि त्रसरूपं त्रसरूपमपि पञ्चेन्द्रियं तदपि नररूपमित्यादि, अनर्पितं-अविशेषितमेव, यथा जीवद्रव्यमिति, ततश्चार्पितं च तदनप्तिं चेत्यर्पितं चेत्यर्पितानर्पितं द्रव्यं भवतीति द्रव्यानुयोगः।
(स्था १०.४६ वृ प ४५६) अर्हत् १. तीर्थंकर । प्रवचनकार, जो अर्थ की प्ररूपणा करते हैं। तित्थं चाउवण्णो संघो, सो पढमए समोसरणे। उप्पण्णे अ जिणाणं वीरजिणिंदस्स बीअंमि॥
(आवनि २६५) अत्थं भासइ अरहा।
(आवनि ९२) २. वह ज्ञानी, जिसकी इन्द्रियातीत चेतना का विकास हो चुका हो। अतीन्द्रियज्ञानी-अवधिज्ञानी, मनःपर्यवज्ञानी, केवलज्ञानी। तओ अरहा पण्णत्ता, तं जहा-ओहिणाणअरहा, मणपज्जवणाणअरहा, केवलणाणअरहा। (स्था ३.५१४)
अलंकारिकसभा वह अलंकारकक्ष, जहां इन्द्र अपने को अलंकृत करता है। अलंकारिका यस्यामलंक्रियते। (स्था ५.२३५ वृ प ३३४)
अलमस्तु केवली, जो ज्ञान की परम कोटि तक पहुंच चुका हो, जिसके लिए कोई ज्ञान पाना शेष न हो। ..."उप्पण्णणाणदंसणधरे अरहा जिणे केवली, अलमत्थु त्ति वत्तव्वं सिया॥
(भग १.२०९) 'अलमत्थु' त्ति .....अलमस्तु पर्याप्तं भवतु, नातः परं किञ्चिद् ज्ञानान्तरं प्राप्तव्यमस्यास्तीति। (भग १.२०९७)
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