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आतुर
वह व्यक्ति, जो शारीरिक और मानसिक दुःखों से दुःखी होकर अत्यंत त्वरा करता है । सारीरमाणसेहिं दुक्खेहिं आतुरीभूतो अच्चत्थं तुरति आतुरो । ( आ १.१५ चूप १०८)
आतुरप्रतिषेवणा
प्रतिषेवणा का एक प्रकार। भूख-प्यास और रोग से अभिभूत होकर किया जाने वाला प्राणातिपात आदि का आसेवन । क्षुत्पिपासाव्याधिभिरभिभूतः सन् यां करोति ।
(स्था १०.६९ वृ प ४६० )
आतुरप्रत्याख्यान उत्कालिक श्रुत (प्रकीर्णक) का एक प्रकार, जिसमें आतुर (ग्लान) को कराए जाने वाले प्रत्याख्यान का वर्णन है। आउरो - गिलाणो, तं किरियातीतं णातुं गीतत्था पच्चक्खावेंति, दिणे दिणे दव्वहासं करेंता अंते य सव्वदव्वदातणताए भत्ते वेरगंजणेंता भत्ते नित्तण्हस्स भवचरिमपच्चक्खाणं कारेंति, एतं जत्थऽज्झणे सवित्थरं वण्णिज्जड़ तमज्झयणं आउरपच्चक्खाणं । (नन्दी ७७ चू पृ ५८)
भोगों का
आतुरस्मरण अनाचार का एक प्रकार आतुर दशा में भुक्त स्मरण करना, जो मुनि के लिए अनाचरणीय है । आउरीभूतस्स पुव्वभुत्ताणुसरणं । (द३.६ जिचू पृ ११४) आत्मदोषोपसंहार
योगसंग्रह का एक प्रकार। अपने दोषों के प्रवाह को समाप्त करना ।
'अत्तदोसोवसंहार' त्ति स्वकीयदोषस्य निरोधः ।
(सम ३२.१.३ वृ प ५५ )
आत्मप्रतिष्ठित क्रोध
अपने ही विचार और आचरण के निमित्त से अपने आप पर होने वाला आवेश ।
स्वयमाचरितस्य ऐहिकं प्रत्यपायमवबुध्य कश्चिदात्मन एवोपरि क्रुध्यति तदा आत्मप्रतिष्ठितः क्रोध इति ।
(प्रज्ञा १४.३ वृ प २९० )
आत्मप्रवाद पूर्व
सातवां पूर्व । इसमें आत्मा का नयों के द्वारा प्रज्ञापन किया
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जैन पारिभाषिक शब्दकोश
गया है।
सत्तमं आयप्पवातं, आय त्ति-आत्मा, सोऽणेगहा जत्थ यदरिसणेहिं वणिज्जति तं आयप्पवादम् ।
(नन्दी १०४ चू पृ ७६)
आत्मभाववक्रता क्रिया
मायाप्रत्यया क्रिया का एक प्रकार । आत्मभाववञ्चनाअप्रशस्त आत्मभाव को प्रशस्त प्रदर्शित करने की प्रवृत्ति | आत्मभावस्याप्रशस्तस्य वङ्कनता-वक्रीकरणं प्रशस्तत्वोपदर्शनता आत्मभाववङ्कनता । (स्था २.१८ वृप ३८ ) आत्मरक्षक
१. इन्द्र का अंगरक्षक देव, जो शस्त्र से सन्नद्ध होकर पीछे खड़ा रहता है।
आत्मरक्षाः शिरोरक्षोपमाः ॥ प्रहरणोद्यता रौद्राः पृष्ठतोऽवस्थायिनः । ( तवा ४.४ ) २. अपने सामने होने वाले असत् आचरण की स्थिति में धार्मिक प्रेरणा, मौन और एकान्त गमन द्वारा अपनी आत्मा की रक्षा करना ।
तओ आयरक्खा पण्णत्ता, तं जहा -- धम्मियाए पडिचोयणाए पडिचोएत्ता भवति, तुसिणीए वा सिया, उट्ठित्ता वा आताए एतमंतमवक्कमेज्जा । (स्था ३.३४८)
आत्मवाद
१. वह सिद्धान्त, जो जैन दार्शनिकों के द्वारा सम्मत है। आत्मवादाः – स्वसिद्धान्तप्रवादाः । ( औप २६ वृ प ६३) २. आत्मा के त्रैकालिक अस्तित्व का स्वीकार करने वाला सिद्धान्त । (आभा १.५ )
आत्मविशोधि
उत्कालिक श्रुत का एक प्रकार इस अध्ययन में आत्मविशुद्धि के विभिन्न साधनों का वर्णन है।
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आत त्ति आत्मा, तस्स विसोही तवेण चरणगुणेहिं य आलोयणाविहाणेण य जहा भवति तहा जत्थ अज्झयणे वणिज्जति तमझयणं आतविसोही । (नन्दी ७७ चू पृ ५८ ) आत्मशरीरानवकांक्षाप्रत्यया क्रिया
अनवकांक्षाप्रत्यया क्रिया का एक प्रकार। अपने शरीर की क्षति की उपेक्षा कर की जाने वाली प्रवृत्ति । तत्रात्मशरीरानवकांक्षाप्रत्यया स्वशरीरक्षतिकारिकर्माणि
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