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जैन पारिभाषिक शब्दकोश
ओहेण उ निजुत्तिं वोच्छं चरणकरणाणुओगातो।।
(ओभा १४) ओघसंज्ञा इन्द्रिय और मन के बिना केवल संवेदना के स्तर पर होने वाला ज्ञान । प्रकम्पनों से होने वाला ज्ञान। ओध:-सामान्यम् अप्रविभक्तरूपं यत्र न स्पर्शनादीनीन्द्रियाणि तानि मनोनिमित्तमाश्रीयन्ते, केवलं मत्यावरणीयक्षयोपशम एव तस्य ज्ञानस्योत्पत्तौ निमित्तम्। (तभा १.१४ वृ)
औत्पत्तिकी बुद्धि अश्रुतनिश्रित मतिज्ञान का एक प्रकार। अदृष्ट, अश्रुत और अज्ञात अर्थ का तत्क्षण यथार्थ रूप से ग्रहण करने वाली बुद्धि। पव्वं अदिदमसयमवेडय-तक्खणविसद्धगहियत्था अव्वाहय-फलजोगा, बुद्धी उप्पत्तिया नाम॥
(नन्दी ३८.२) औदयिक भाव उदय से होने वाली आत्मा की अवस्था। ...उदयः तेन निर्वृत्तो भव औदयिकः। (जैसिदी २.४५ वृ) (द्र उदयनिष्पन्न)
ओघ सामाचारी साधुओं के संघीय व्यवहार की व्यवस्था। वह इच्छाकार आदि दस प्रकार की होती है। सामाचारी दशविधा ओघरूपा"। (उशावृ प ५४७) (द्र सामाचारी)
ओघादेश व्याख्या का एक कोण, जिसके द्वारा सामान्य रूप से वस्त का प्ररूपण किया जाता है। (द्र विधानादेश)
औदारिक अस्वाध्याय अस्थि, मांस आदि के परिपार्श्व में तथा चन्द्रग्रहण आदि के समय आगम-स्वाध्याय का निषेध। दसविधे ओरालिए असज्झाइए पण्णत्ते, तं जहा-अलि, मंसे, सोणिते, असइसामंते, ससाणसामंते. चंदोवराए. सरोवराए, पडणे, रायवुग्गहे, उवस्सयस्स अंतो ओरालिए सरीरगे।
(स्था १०.२१)
ओघोदभवा शक्ति द्रव्य में होने वाली अव्यक्त शक्ति, घास में घृत होने की शक्ति। गुणपर्याययोः शक्तिमात्रमोघोदभवादिमा।" ज्ञायमाना तृणत्वेनाज्यशक्तिरनुमानतः" (द्रत २.६,७)
ओजआहार जन्म के प्रथम समय में कार्मण शरीर द्वारा वातावरण से अथवा माता-पिता से लिए जाने वाले आहारयोग्य पुद्गल। ओज-उत्पत्तिदेशे आहारयोग्यपुद्गलसमूहः।
(प्रज्ञा २८.१०५ वृप५१०)
औदारिककाययोग औदारिक शरीर वाले मनुष्य और तिर्यंच गति के जीवों की हलन-चलन रूप प्रवृत्ति। (तभा ९.४ वृ पृ १८४) (द्र वैक्रियकाययोग) औदारिकमिश्रकाययोग
(तभा २.२६ वृ) (द्र औदारिकमिश्रशरीर कायप्रयोग) औदारिकमिश्रशरीर कायप्रयोग औदारिक काययोग का कार्मण, वैक्रिय अथवा आहारक काययोग के साथ होने वाला मिश्रण, जो चार प्रकार से हो सकता है१. मनुष्य एवं तिर्यंचगति में उत्पन्न होने के समय जीव आहार ले लेता है, परन्तु शरीर पर्याप्ति का निर्माण पूर्ण नहीं हो पाता, उस अवस्था में कार्मण काययोग के साथ औदारिकमिश्र काययोग होता है। २. वैक्रियलब्धि वाले मनुष्य और तिर्यंच वैक्रिय रूप बनाते
औ
औधिक उपकरण वह उपकरण, जो मुनि के प्रतिदिन काम में आता है। औघिको नित्यमेव यो गृह्यते। (प्रसावृ प ११८)
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