Book Title: Jain Paribhashika Shabdakosha
Author(s): Tulsi Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 273
________________ २५६ जैन पारिभाषिक शब्दकोश वचनपुण्य वयणसंपदा चउव्विहा पण्णत्ता, तं जहा-आदिज्जवयणे (जैतवि ३.४) यावि भवति, महुरवयणे यावि भवति, अणिस्सियवयणे यावि (द्र वाक्पुण्य) भवति, असंदिद्धभासी यावि भवति।से तं वयणसंपदा। (दशा ४.७) वचनबल १. वह प्राण, जो बोलने की शक्ति के लिए उत्तरदायी है। वचनसुप्रणिधान (प्रसा १०६६) वचन की वह अवस्था, जिसमें आत्मा की शुद्धि के लिए २. बलालम्बन ऋद्धि का एक प्रकार। सम्यक् वाक् के प्रति अवधान होता है। (द्र वाग्बली) (स्था ३.९७) (द्र कायसुप्रणिधान) वचनयोग वचसा शापानुग्रहसमर्थ भाषावर्गणा के आलम्बन से होने वाली जीव की वाचिक वह मुनि, जिसमें वचन से शाप देने और अनुग्रह करने की शक्ति और प्रवृत्ति। शक्ति होती है। (औप २४ वृ पृ ५२) वाक्करणेन सम्बन्धादात्मनो यद वीर्यसमुत्थानं भाषकशक्तिः (द्र मनसा शापानुग्रहसमर्थ) स वाग्योगः। (तभा ६.१ वृ) वचनयोग प्रतिसंलीनता वचोगुप्ति अहिंसा महाव्रत की एक भावना। (सम २५.१.३) अकुशल वचन का निरोध और कुशल वचन की प्रवृत्ति। अकुसलवइणिरोहो वा, कुसलवइउदीरणं वा। सेतं वइजोग (द्र वाक्समितियोग) पडिसंलीणया। (औप ३७) वज्रऋषभनाराच संहनन वचनविनय संहनन का एक प्रकार। वह अस्थिरचना, जो वज्र-कील, विनयार्ह आचार्य आदि के प्रति कुशल वचन का प्रयोग ऋषभ-वेष्टन, नाराच-दोनों ओर मर्कटबन्ध (परस्पर गूंथी करना। परोक्ष होने पर भी उनका गुणसंकीर्तन करना। हुई आकृति) वाली हो–जिसमें दो हड्डियों के छोर परस्पर मर्कटबन्ध से बंधे हुए हों। उन पर तीसरी अस्थि का वेष्टन परोक्षेष्वपि कायवाङ्मनोभिरञ्जलिक्रियागुणसंकीर्तनानुस्मरणादिः। (तवा ९.२३.६) तथा ऊपर तीनों हड्डियों का भेदन करने वाली कील लगी (देखें चित्र पृ ३४१) वचनविभक्ति वज़ं-कीलिका, ऋषभः-परिवेष्टनपट्टः, नाराचःवचन का विभाग-इस प्रकार का वचन बोलना और इस उभयतो मर्कटबन्धः, यत्र द्वयोरस्थनोरुभयतोमर्कटबन्धेन प्रकार का वचन न बोलना-वक्तव्य और अवक्तव्य का बद्धयोः पट्टाकृतिना तृतीयेनास्थ्ना परिवेष्टितयोरुपरि विवेक करना। तदस्थित्रितयभेदि कीलिकाकारं वज्रनामकमस्थि भवति वचनस्य विभक्तिर्वचनविभक्तिः, विभजनं विभक्तिः-एवं- तद्वऋषभनाराचम्। (स्था ६.३० वृ प ३३९) भूतमनवद्यमित्थंभूतं च सावद्यमित्यर्थः। वज्रमध्या चन्द्रप्रतिमा (दनि २३ हावृ प १४) वह चन्द्रप्रतिमा, जिसमें कृष्ण पक्ष की एकम के दिन भक्त वचनसंवर और पान की पन्द्रह-पन्द्रह दत्तियां ली जाती हैं और क्रमश: वचन की प्रवृत्ति का निरोध। (स्था १०.१०) हीन करते-करते अमावस्या को एक-एक दत्ति ली जाती है। शुक्लपक्ष की एकम के दिन भक्त-पान की दो-दो वचनसम्पदा दत्तियां ली जाती हैं। बढ़ाते-बढ़ाते चतुर्दशी को पन्द्रह दत्तियां गणिसम्पदा का एक प्रकार। आदेय, मधुर, अनिश्रित और । ली जाती हैं और पूर्णिमा के दिन उपवास किया जाता है। असंदिग्ध वचन का वैभव। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org हो।

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