Book Title: Jain Paribhashika Shabdakosha
Author(s): Tulsi Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 298
________________ जैन पारिभाषिक शब्दकोश २८१ शरीरपर्याप्ति छह पर्याप्तियों में दूसरी पर्याप्ति। शरीर के योग्य पुद्गलों का ग्रहण, परिणमन और उत्सर्जन करने वाली पौद्गलिक शक्ति की संरचना। सत्तधातुतया परिणामणसत्ती शरीरपज्जत्ती। (नन्दीचू प २२) सामान्येन गृहीतस्य योग्यपुद्गलसंघातस्य शरीराङ्गोपाङ्गतया संस्थापनक्रिया--विरचनक्रिया तस्याः पर्याप्तिः शरीरपर्याप्तिः। (तभा ८.१२ वृ पृ १६१) शरीरबकुश बकुश निग्रन्थ का एक प्रकार । वह मुनि, जा पर, नख, मुह आदि शरीर के अवयवों की विभूषा में प्रवृत्त रहता है। चरणनखमुखादिदेहावयवविभूषाऽनुवर्ती शरीरबकुशः। (भग २५.२७९ वृ) (द्र यथासूक्ष्मबकुश) शरीरबन्धननाम नामकर्म की एक प्रकृति, जिसके उदय से औदारिक शरीर वर्गणा के गृहीत और गृह्यमाण पुदगलों का परस्पर तथा तैजस और कार्मण के पुदगलों के साथ संबंध स्थापित होता बहुपडिपुण्णिंदिए यावि भवति। (दशा ४.६) शरीराङ्गोपाङ्गनाम नामकर्म की एक प्रकृति, जिसके उदय से शरीर के अंगसिर, छाती, उदर, पीठ, दो भुजाएं, दो ऊरु और उपांगअंगुली आदि की रचना होती है। 'शरीराङ्गोपाङ्गनामे' ति शरीरस्थाङ्गान्यष्टौ शिरःप्रभृतीनि, उक्तं च–'सीसमुरोयरपिट्ठी दो बाहू ऊरुया य अटुंगा इति' उपाङ्गानि अङ्गावयवभूतान्यङ्गुल्यादीनि शेषाणि तत्प्रत्यवयवभूतान्यगुलिपर्वरेखादीनि अङ्गोपाङ्गानि."यदुदयवशादौदारिकशरीरत्वेन परिणतानां पुद्गलानामङ्गो पाङ्गविभागपरिणतिरुपजायते तदौदारिकाङ्गोपाङ्गनाम। (प्रज्ञा २३.४२ वृ प ४६९,४७०) शर्कराप्रभा अधोलोक (नरक) की दूसरी पृथ्वी (वंशा) का गोत्र, जहां शर्करोपल जैसी आभा है। (देखें चित्र पृ ३४६) सक्करोपलस्थितपटलमधोऽधः एवंविधस्वरूपेण प्रभाव्यत इति सर्कराप्रभा। (अनुचू पृ ३५) (द्र रत्नप्रभा) यदौदारिकपुद्गलानां गृहीतानां गृह्यमाणानां च परस्परं तैजसादिपुदगलैर्वा सह सम्बन्धजनकं तद्बन्धननाम। (प्रज्ञा २३.४३ वृ प ४६९) (द्र औदारिकशरीरबन्धननाम) शरीरसंघातनाम नामकर्म की एक प्रकृति, जिसके उदय से शरीरवर्गणा के गृहीत और गृह्यमाण पुद्गलों की शरीररचना के अनुरूप व्यवस्था होती है। सात्यन्ते पिण्डीक्रियन्ते औदारिकादिपुद्गला येन तत्संघातं तच्च तन्नाम च संघातनाम। (प्रज्ञा २३.४४ वृप ४७०) शलाकापुरुष वह पुरुष, जो विशिष्ट लक्षणसम्पन्न, मनुष्यों में श्रेष्ठ तथा दूसरों के लिए मानदण्ड होता है। ये संख्या में तिरेसठ हैंचौबीस तीर्थंकर, बारह चक्रवर्ती, नौ बलदेव, नौ वासदेव, नौ प्रतिवासुदेव। एत्तो सलायपुरिसा तेसट्टी सयलभवणविक्खादा। जायंति भरहखेत्ते णरसीहाकेण॥ तित्थयरचक्कबलहरिपडिसत्तु णाम विस्सुदा कमसो। बिउणियबारसबारस पयत्थणिधिरंधसंखाए। (त्रिप्र ४.५१०,५११) शरीरसम्पदा गणिसम्पदा का एक प्रकार। लम्बाई, चौड़ाई तथा परिपूर्ण इन्द्रियों से प्राप्त होने वाला शारीरिक वैभव। सरीरसंपदा चउव्विहा पण्णत्ता, तं जहा-आरोहपरिणाहसंपन्ने यावि भवति, अणोतप्पसरीरे, थिरसंघयणे, शल्य वह भाव, जो अन्त:प्रविष्ट होकर शरीर और मन को पीडित करता रहता है। शृणाति हिनस्तीति शल्यं शरीरानुप्रवेशि काण्डादिप्रहरणम्, शल्यमिव शल्यं यथा तत् प्राणिनो बाधाकर तथा शारीरमानसबाधाहेतुत्वात्कर्मोदयविकारः शल्यमित्युपचर्यते। (ससि ७.१८) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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