Book Title: Jain Paribhashika Shabdakosha
Author(s): Tulsi Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 317
________________ ३०० जैन पारिभाषिक शब्दकोश सचित्तमाहारयन्तीति सचित्ताहाराः। (प्रज्ञा २८.१ वृ प ५००) सचेलक साधना की वह व्यवस्था, जिसके अनुसार मुनि वस्त्र रखता वह सत्त्व है। जम्हा सत्ते सुभासुभेहिं कम्मेहिं तम्हा सत्ते त्ति। (भग २.१५) २. पृथ्वी, पानी, अग्नि और वाय के जीव। प्राणा द्वित्रिचतुः प्रोक्ता, भूतास्तु तरवः स्मृताः । जीवाः पञ्चेन्द्रिया ज्ञेयाः, शेषाः सत्त्वा उदीरिताः॥ (उशावृप५८४) सचेलकः चेलान्वितः। (उशावृ प ९२) सञ्चित वे कर्मपरमाणु, जिनका अबाधाकाल पूरा होने पर वेदन के लिए जिनकी निषेकरचना हो चुकी। 'सञ्चितस्य' अबाधाकालातिक्रमेणोत्तरकालवेदनयोग्यतया निषिक्तस्य। (प्रज्ञा २३.१३ वृ प ४५९) सत्य धर्म श्रमणधर्म अथवा उत्तमधर्म का एक प्रकार । असत्य, परुषवचन और चुगली का वर्जन तथा हित, मित और प्रशस्त वचन का प्रयोग। सत्यर्थे भवं वचः सत्यं, सद्भ्यो वा हितं सत्यम्, तदननृतमपरुषमपिशुनमनसभ्यमचपलमनाविलमविरलमसम्भ्रान्तं मधुरमभिजातमसन्दिग्धं स्फुटमौदार्ययुक्तमग्राम्यपदार्थाभिव्याहारमसीभरमरागद्वेषयुक्तम्। (तभा ९.६) सत् अस्तित्व, जो उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य से युक्त होता है। उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत्। (तसू ५.२९) सत्यप्रतिज्ञ व्यवहार वह व्यवहार, जो भिक्षु के वचन को प्रमाण मानकर किया जाता है, जैसे-एक कहता है मैंने इसके साथ दोष-सेवन नहीं किया है और दूसरा कहता है मैंने इसके साथ दोषसेवन किया है। इस स्थिति में प्रथम के लिए कोई प्रायश्चित्त नहीं और दूसरे के लिए प्रायश्चित्त का विधान किया जाता सत्कार स्तवन-स्तुति करना, वन्दना करना। सत्कार:-स्तवनवन्दनादि। (स्था ७.१३० वृ प ३८७) सत्कारपुरस्कार परीषह परीषह का एक प्रकार । सत्कार और सम्मान मिलने पर हर्ष और न मिलने पर अनुताप से उत्पन्न बाधा, जो मुनि के द्वारा समभावपूर्वक सहनीय है। अभिवायणमब्भुटाणं, सामी कुज्जा निमंतणं। जे ताई पडिसेवंति, न तेसिं पीहए मुणी॥ अणुक्कसाई अप्पिच्छे, अण्णाएसी अलोलुए। रसेसु नाणुगिज्झेज्जा, नाणुतप्पेज्ज पण्णवं॥ (उ २.३८,३९) सत्यप्रतिज्ञा व्यवहारास्तीर्थकृद्भिरुपदिष्टास्तस्मात् यत् रत्नाधिको ब्रूते"न मया प्रतिसेवितमिति तत्प्रमाणत: शुद्धः एष न प्रायश्चित्तभागिति, यदपि चावमरत्नाधिको वक्ति मया प्रतिसेवितमिति तदपि प्रमाणमतस्तस्य मूलं प्रायश्चित्तम्। (व्य २.२४ वृ प ६१) सत्ता १. अबाधाकाल-कर्म के बंध और उदय का मध्यवर्ती काल। २. विद्यमानता। अबाधाकालो विद्यमानता च सत्ता। (जैसिदी ४.५ ) सत्यप्रवाद पूर्व छठा पूर्व, जिसमें सत्य-संयम अथवा सत्यवचन का प्रज्ञापन किया गया है। छटुं सच्चप्पवादं, सच्चं-संजमो सच्चवयणं वा, तं सच्चं जत्थ सभेदं सपडिवक्खं च वणिज्जति तं सच्चप्पवाद। (नन्दी १०४ चू पृ७५,७६) सत्यमहाव्रत सत्त्व १. जीव शुभ और अशुभ कर्मों का अनुभव करता है इसलिए (उ २१.२) (द्र सर्वमृषावादविरमण) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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