Book Title: Jain Paribhashika Shabdakosha
Author(s): Tulsi Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 321
________________ ३०४ जैन पारिभाषिक शब्दकोश समवाय द्वादशाङ्ग श्रुत का चौथा अङ्ग, जिसमें एक से लेकर संख्यावृद्धि के आधार पर विविध विषयों पर विचार किया गया है। १. मन की एकाग्रता। समाधिश्च शुभचित्तैकाग्रता। (उशावृ प २९६) २. योगसंग्रह का एक प्रकार । चैतसिक स्वास्थ्य, चित्त की निर्मलता। समाधिश्च-चेतः स्वास्थ्यम्। (सम ३२.१.२ वृ प५५) ३. राग आदि के अभाव से उत्पन्न समता की चेतना। समाधिः-समता सामान्यतो रागाद्यभाव इत्यर्थः। (स्था १०.१३ वृ प ४४८) समवाए णं एकादियाणं एगत्थाणं एगुत्तरियपरिवुड्डीय"। (समप्र ९२) समवायधर वह मुनि, जो समवायाङ्ग सूत्र के पाठ और अर्थ का विशेषज्ञ होता है। अप्पेगइया समवायधरा। (औप ४५) समस्तगणिपिटकधर वह मुनि, जो समस्त गणिपिटक का धारक होता है। गणिन-आचार्यस्य पिटकं गणिपिटक-प्रकीर्णकश्रुतादेशश्रतनिर्यक्त्यादियुक्तं जिनप्रवचनं समस्तम्-अनन्तगमपर्यायो-पेतं गणिपिटकं धारयन्ति येते तथा। (औप १.२६ वृ प ६४) समाधिवीर्य वह शक्ति, जो कायिक, वाचिक और मानसिक समस्याओं को सुलझाने वाली होती है, जो केवलज्ञान की उत्पत्ति अथवा सर्वार्थसिद्धि स्वर्ग में जाने का हेतु बनती है। समाहिवीरियं णाम-मणादीणं एरिसं मणादिसमाहाणमुप्पज्जति जेण केवलमुप्पाडे ति सव्वट्ठसिद्धिदेवत्तं वा णिव्वत्तेति। (निभा ४७ चू) समा कालमर्यादा। समा-कालविशेषः। (द्र कालचक्र) समारंभ मुट्ठी आदि से किया जाने वाला प्रहार, जो परिताप का हेतु बनता है। समारंभः-परितापकरो मष्ट्याद्यभिघातः। (उ २४.२१ शावृ प ५१९) (स्था २.७४ ७ प ४४) समाचार शिष्टजनसम्मत आचरण। समाचार:-शिष्टाचरितः क्रियाकलापः। (आवहावृ १ पृ १७२) समारोप जो वस्तु जिस प्रकार की नहीं है, उसमें होने वाला उस प्रकार का अध्यवसाय। अतस्मिंस्तदध्यवसायः समारोपः। (प्रनत १.८) समादान क्रिया संयम धारण करने पर भी अविरति की तरफ झुकाव। संयतस्य सत: अविरतिं प्रत्याभिमुख्यं समादानक्रिया। (तवा ६.५.७) समादेश औद्देशिक (उद्गम दोष) का एक प्रकार । निग्रंथों के उद्देश्य से निष्पन्न आहार। "निम्गंथाणं समादेसो॥ (निभा २०२०) समिता परिषद् इन्द्र की आभ्यन्तर परिषद्, जो प्रयोजन होने पर भी इन्द्र के द्वारा बुलाने पर ही आती है। अभिंतरिता समिता। (स्था ३.१४३) प्रयोजनेष्वप्याहूता एवागच्छन्ति सा अभ्यन्तरा परिषद्। (स्थावृ प १२२) (द्र जाता परिषद्, चण्डा परिषद्) समिति चारित्र के अनुकूल होने वाली प्रवृत्ति, जो प्राणातिपात आदि की वर्जना के द्वारा सम्यक् बनती है। समाधि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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