Book Title: Jain Paribhashika Shabdakosha
Author(s): Tulsi Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 333
________________ ३१६ जैन पारिभाषिक शब्दकोश सिंह वह मुनि, जो गीतार्थ होता है। 'सिंहाः' गीतार्थाः। (बृभा २९०१ वृ) सिंहासन महाप्रातिहार्य का एक प्रकार। चौंतीस अतिशयों में से एक।। स्फटिकमय सिंहासन, जिस पर बैठकर अर्हत् धर्मोपदेश करते हैं। आगासफालियामयं सपायपीढं सीहासणं। (सम ३४.१.९) यष्टि रखता है। सिद्धपुत्रो नाम सकेशो भिक्षामटति वा न वा वराटकैः विटलकं करोति यष्टिं धारयति। (व्यभा ३६७१ ७) सिद्धशिला १. ईषत्प्रारभारा नामक आठवीं पृथ्वी, जहां मुक्त जीवों का निवास होता है। अट्ठ पुढवीओ पण्णत्ताओ, तं जहा-रयणप्पभा"ईसिपब्भारा। (स्था ८.१०८) २. वह शिलातल, जिस पर साधना करने वाला क्षेत्र के प्रभाव से अथवा देवानुभाव से सिद्धि को प्राप्त हो जाता है। सिद्धसिल त्ति जत्थ सिलातले साहवो तवकम्मिया सयमेव गंतुं भत्तपरिणिगिणिं पादवगमणं वा बहवे पवण्णपुव्वा पडिवजंति तत्थ य खेत्तगुणतो अहाभद्दियदेवतागुणेण वा आराहणा सिद्धी य जत्थावस्सं भवति सा सिद्धसिला। (अनु १६ चूपृ९) सिद्धादिगुण मुक्त होने के प्रथम क्षण में अस्तित्व में आने वाले गुण। सिद्धानामादौ-सिद्धत्वप्रथमसमय एव गुणाः सिद्धादिगुणाः । (सम ३१.१.१ वृ प५३) सिद्ध वह आत्मा, जिसके संपूर्ण कर्म समाप्त हो जाते हैं, जो परमसुखी और कृतकृत्य हो जाता है। सिद्धास्तु अशेषनिष्ठितकर्मांशाः परमसुखिनः कृतकृत्याः। (आवनि १७९ हावृ पृ७९) (द्र सिद्ध जीव) सिद्धकेवलज्ञान मुक्त जीवों का केवलज्ञान। सिद्धस्य"यत्केवलज्ञानं तत्। (स्था २.८८ वृ प ४५) सिद्धगति मुक्त जीव की अवस्थिति। (प्रज्ञा ६.५) अनन्तज्ञान-दर्शन-सुख-वीर्यादिस्वस्वभावगुणोपलब्धिरूपायाः सिद्धेर्गतिः प्राप्तिः जीवस्य भवति, परमप्रकर्षप्राप्तरत्नत्रयपरिणतशुक्लध्यानविशेषसंपादितपरमसंवर-निर्जराभ्यां सकलकर्मक्षयादात्मनो मुक्तव्यपदेशभाजः स्वाभाविकोर्ध्वगमनसभावाल्लोकाग्रप्राप्तस्य सिद्धपरमेष्ठिपर्यायरूपसिद्धगतिर्भवतीत्यर्थः । (गोजी पृ २८२) सिद्ध जीव जन्म और मरण के चक्र से मुक्त जीव। संसरन्ति भवान्तरमिति संसारिणः, तदपरे सिद्धाः। ___ (जैसिदी ३.२ वृ) (द्र सिद्ध) सिद्धपुत्र वह मुनि, जो श्रमण की आचार-मर्यादा से मुक्त होकर भिक्षाटन करता है। वह केशसहित होता है और हाथ में सुख १. पापकर्म का निर्जरण। जे निज्जिणे से सुहे। (भग ७.१६०) २. इष्ट के संयोग और अनिष्ट के वियोग से होने वाला आह्लाद। इष्टसंयोगाऽनिष्टनिवृत्तेराह्लादः सुखम्। (जैसिदी ९.२२) ३. इन्द्रिय सुख-इन्द्रिय के संवेदन से होने वाला सुख। ४. मानसिक सुख-मन की अभिलाषा की पूर्ति से होने वाला सुख। ५. प्रशम सुख-राग और द्वेष के उपशम से होने वाला सुख। ६. आत्मिक सुख-आत्मदर्शन और आत्मानुभूति से होने वाला सुख। इंदियमणस्स पसमज आदुत्थं तहय सोक्खं चउभेयं। इंदियलक्खणदो णियलक्खं अणुहवणे होइ आदुत्थं ॥ (नच ४००) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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