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जैन पारिभाषिक शब्दकोश
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साधुभ्यो देयमितिबुद्ध्या देयवस्तुन: कियन्तं कालं व्यवस्थापनं स्थापना।
(पिनिवृ प ३५)
स्थापनाकल्प १. अकल्पिक मुनि, जिसने पिण्डैषणा के सूत्र और अर्थ का अध्ययन नहीं किया है, उससे आहार आदि की गोचरी न करवाना। २. अयोग्य व्यक्ति को दीक्षित न करना। .""ठवणाकप्पे दुविहमण्णतरे।" आहार उवहि सेज्जा, अकप्पिएणं तु जो ण गिण्हावे। ण य दिक्खेति अणटा, अडयालीसं पि पडिकुट्टे॥
(निभा ५९३२,५९३४) (द्र अकल्पस्थापनाकल्प, शैक्षस्थापनाकल्प)
स्थाप्य वह ज्ञान, जो शब्दातीत है, शाब्दिक व्यवहार से परे है और स्वार्थ है। 'ठप्पाई' ति असंववहारियाई ति वृत्तं भवति।
(अनु २ चू पृ २) स्थावर जीव वे जीव, जो स्थावरनामकर्मोदय के कारण गति नहीं कर सकते। स्थावरनामकर्मोदयात् तिष्ठन्तीत्येवंशीला: स्थावरा:-पृथिव्यादयः।
(स्था ३.३२७ वृ प ३६)
स्थापना कुल १. वह कुल, जो स्थाप्य-अभोज्य है। २. विशिष्ट कुल, जो गीतार्थ द्वारा स्थापित है। ठप्पा कुला ठवणाकुला अभोज्जा इत्यर्थः, साधुठवणाए वा ठविजंति त्ति ठवणाकुला।
(नि ४.२१ चू) (द्र पारिहारिक कुल) स्थापना निक्षेप निक्षेप का एक प्रकार। मूल अर्थ से शून्य वस्तु को उसी के अभिप्राय से स्थापित करना । जैसे-उपाध्याय की प्रतिमा। तदर्थशून्यस्य तदभिप्रायेण प्रतिष्ठापनं स्थापना।
(जैसिदी १०.७) जं पुण तयत्थसुनं तयभिपाएण, तारिसागारं। कीरइ वा निरागारं इत्तरमियरं वसा ठवणा॥
(विभा २६)
स्थावरनाम नाम कर्म की एक प्रकृति, जिसके उदय से जीव गर्मी, सर्दी
आदि से व्यथित होने पर भी अपना स्थान नहीं छोड़ सकते, इच्छापूर्वक गति नहीं कर सकते। यह एकेन्द्रिय जाति में जन्म लेने का हेतु बनता है। यदुदयादुष्णाद्यभितापेऽपि तत्स्थानपरिहारासमर्थाः पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतयः स्थावरा जायन्ते तत् स्थावरनाम।
(प्रज्ञा २३.३८ वृप ४७४) यन्निमित्त एकेन्द्रियषु प्रादुर्भावः तत् स्थावरनाम।
(तवा ८.११.२२) स्थित पाठ कण्ठस्थ करने की पद्धति का एक अङ्ग। सीखे हुए ग्रन्थ को मन में धारण कर लेना, जमा लेना अथवा उसकी अविस्मृति करना। स्थितमिति चेतसि स्थितम् , न प्रच्युतमिति यावत्।
(अनु १३ हावृ पृ९)
स्थापना सत्य सत्य का एक प्रकार। प्रतीकात्मक सत्य। मूल वस्तु के न होने पर भी किसी दूसरी वस्तु में उसका आरापेण करना। जैसे-लेप्य कर्म में अर्हत् अथवा राम, कृष्ण आदि का आरोपण करना, शतरंज में हाथी, घोड़े, वजीर की कल्पना कर मोहरों को उन-उन नामों से बुलाना। 'ठवणं' ति स्थाप्यत इति स्थापना। यल्लेप्यादिकाल्दादिविकल्पेन स्थाप्यते तद्विषये सत्यं स्थापनासत्यम्।
(स्था १०.८९ वृ प ४६४)
स्थितकल्प अवस्थित आचारमर्यादा। मध्यवर्ती बाईस तीर्थंकरों के समय शय्यातर-पिण्ड, चातुर्यामधर्म का पालन, पुरुष-ज्येष्ठत्व और कृतिकर्म-इस चतुर्विध कल्प के सतत आसेवन की अनिवार्यता है। प्रथम तथा अंतिम तीर्थंकर के समय आचेलक्य, औद्देशिक, राजपिंड, शय्यातरपिंड, कृतिकर्म, व्रत (पांच महाव्रत), पुरुष-ज्येष्ठत्व, प्रतिक्रमण, मासकल्प और पर्युषणाकल्प-इस दसविध कल्प की अनिवार्यता है।
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