Book Title: Jain Paribhashika Shabdakosha
Author(s): Tulsi Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 339
________________ ३२२ जैन पारिभाषिक शब्दकोश स्त्री परीषह परीषह का एक प्रकार । साध्वी का पुरुष के प्रति और साधु का स्त्री के प्रति होने वाले आकर्षण से उत्पन्न संवेदन, जो मुनि के द्वारा सहनीय है। संगो एस मणुस्साणं जाओ लोगंमि इथिओ। जस्स एया परिणाया सुकडं तस्स सामण्णं॥ एवमादाय मेहावी पंकभूया उ इथिओ। नो ताहिं विणिहन्नेज्जा चरेज्जत्तगवेसए॥ (उ २.१६,१७) थेरो-जातिसुयपरियाएहिं वृद्धो जो वा गच्छस्स संथितिं करेति। (द ९.४.१ अचू पृ १५) (द्र उपाध्याय) स्थविरकल्पस्थिति संघबद्ध साधना करने वाले मुनि की आचार संहिता। (स्था ६.१०३) स्थान द्वादशांग श्रुत का तीसरा अंग, जिसमें आगमिक विषयों का वर्णन एक से दश तक की संख्या के आधार पर किया गया स्त्रीरत्न चक्रवर्ती के चौदह रत्नों में से एक रत्न। अत्यन्त कामसुख देने वाले गुण से युक्त स्त्री। स्त्रीरत्नमत्यदभतकामसखनिधानम्। (प्रसाव प३५०) एक्कविहवत्तव्वयं दुविहवत्तव्वयं जाव दसविहवत्तव्वयं। (समप्र ९१) स्त्रीरूपविरति समितियोग ब्रह्मचर्य महाव्रत की एक भावना। एवं इत्थीरूवविरतिसमितिजोगेण भावितो भवति अंतरप्या। (प्रश्न ९.९) (द्र इन्द्रियालोकवर्जन) स्थानगुण एक विशेष गुण, जिसके द्वारा अधर्मास्तिकाय स्थितिपरिणत जीव और पुद्गलों की स्थिति का हेतु बनता है। 'ठाणगुणे' त्ति जीवपुद्गलानां स्थितिपरिणतानां स्थित्युपष्टम्भहेतुः। (भग २.१२६ वृ) स्थानधर वह मुनि, जो स्थानाङ्ग सूत्र के सूत्रपाठ और अर्थ का विशेषज्ञ होता है। अप्पेगइया ठाणधरा। (औप ४५) स्त्रीलिंगसिद्ध वह सिद्ध, जो स्त्री की शरीर-रचना में मुक्त होता है। इत्थीए लिंगं इथिलिंगं"तम्मि सरीरनिव्वत्तिलिंगे ठिता सिद्धा तातो वा सिद्धा इथिलिंगसिद्धा। (नंदी ३१ चू पृ २७) स्त्रीवेद नोकषाय चारित्रमोहनीय कर्म की एक प्रकृति । स्त्रीवेदमोहकर्म के उदय से पुरुष के प्रति होने वाला वासनात्मक स्थानायतिक कायक्लेश का एक प्रकार। कायोत्सर्ग में स्थिर होना। स्थानायतिकः स्थानातिगः स्थानातिदोवा-कायोत्सर्गकारी। (स्था ७.४९ वृ प ३७८) संवेदन। स्त्रियाः पुमांसं प्रत्यभिलाष इत्यर्थः, तद्विपाकवेद्यं कर्मापि स्थापना स्त्रीवेदः। (प्रज्ञा १८.६० वृ प ४६८) १. धारणा की तीसरी अवस्था, जिसमें अवाय से अवधारित अर्थ पूर्वापर आलोचनापूर्वक हृदय (मस्तिष्क) में स्थापित स्थविर होता है। १. धर्मसंघ में सात वेदों में से एक पद। मुनियोग्य प्रवृत्ति में 'ठवण' त्ति ठावणा, सा य अवायावधारियमत्थं पुव्वाविषाद प्राप्त व्यक्ति को स्थिर करने वाला मुनि। वरमालोइयं हितयम्मि ठावयंतस्स ठवणा भण्णति। २. वय, श्रुत तथा संयम पर्याय में वृद्ध मुनि। (नंदी ४९ चू पृ ३७) थिरकरणा पुण थेरो पवत्तिवावारिएसु अत्थेसुं। २. उद्गम दोष का एक प्रकार। यह वस्तु साधु को देना है' जो जत्थ सीयइ जई संतबलो तं थिरं कुणइ॥ इस भावना से देय वस्तु को कुछ समय तक स्थापित कर (प्रसावृ प २४) रखना। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.brg

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