Book Title: Jain Paribhashika Shabdakosha
Author(s): Tulsi Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 337
________________ ३२० जैन पारिभाषिक शब्दकोश सूत्रधर है। सूत्र सूक्ष्म अंश से युक्त जीव की आत्मविशुद्धि। दर्शन और अन्य दर्शनों का प्रतिपादन किया गया है। संचलनलोभासंख्येयखण्डरूप: सम्पराय:-कषायो यस्य स सूयगडे णं ससमया सूइज्जति परसमया सूइज्जंति ससमयसूक्ष्मसम्परायः। (समवृ प २७) परसमया सूइज्जति। (समप्र ९०) सूचीकुशाग्र असंवर ( आश्रव) सूत्रकृतधर आश्रव का एक प्रकार । सूई और कुशाग्र जैसे शरीरोपघातक । वह मुनि, जो सूत्रकृताङ्ग के सूत्र-पाठ और अर्थ का विशेषज्ञ उपकरणों को असावधानी से रखना। यह द्रव्य असंवर है। होता है। (स्था १०.११) अप्पेगइया सूयगडधरा। (औप ४५) सूचीकुशाग्र संवर संवर का एक प्रकार । शरीर का उपघात करने वाले सूची, केवल सूत्र को कण्ठस्थ करने वाला मुनि। कुशाग्र आदि उपकरणों का संवरण। यह व्यावहारिक संवर (स्था वृप १८६) (द्र सूत्रधर-अर्थधर) सूच्याः कुशाग्राणां च शरीरोपघातकत्वाद्यत्संवरणं-सङ्गोपनं स सूचीकुशाग्रसंवरः, एष तूपलक्षणत्वात् समस्तौपग्रहि सूत्रधर-अर्थधर कोपकरणापेक्षः। (स्था १०.१० वृ प ४४८) सूत्र और अर्थ दोनों को धारण करने वाला मुनि। सूत्रधर:- पाठकः, अर्थधरो-बोद्धाः, अन्यस्तूभयधरः । (स्थावृप १८६) १. दृष्टिवाद का एक प्रकार, जिसमें सब द्रव्यों और पर्यायों सूत्रमण्डली की सूचना मिलती है। इसके बाईस प्रकार हैं, जो पूर्वगत मण्डली का एक विभाग। श्रमणों के लिए एक साथ बैठकर श्रुत और उसके अर्थ के सूचक हैं। सत्र के आलापकों के श्रवण-ग्रहण-अवधारण और परावर्तन ताणि य सुत्ताई सव्वदव्वाण सव्वपज्जवाण सव्वणताण करने की व्यवस्था। सव्वभंगविकप्याण य देसगाणि, सव्वस्स य पुव्वगतसुतस्स इय सुद्धसुत्तमंडलि, दाविज्जति अस्थमंडली चेव। अत्थस्स य सूयग त्ति, अतो ये सूयणत्तातो सुत्ता भणिता। (व्यभा १४२९) (नन्दीचू पृ७४) (द्र अर्थमण्डली) २. वह रचनाशैली, जो अर्थ की सूचक है। वह रचनाशैली, जिसमें अनेक अर्थों का संघात है। एकेनापि सूत्रेण बहवोऽर्थाः सङ्घात्यन्त इति सूत्रमिव सूत्रम्।। १. रुचि का एक प्रकार । आगम के अध्ययन से उत्पन्न रुचि। अर्थस्य सूचनाद्वा सूत्रम्। (बृभा ३१० वृ) २. सूत्ररुचि सम्पन्न व्यक्ति। जो सुत्तमहिज्जंतो, सुएण ओगाहई उ सम्मत्तं। सूत्रकल्पिक अंगेण बाहिरेण व, सो सुत्तरुइ त्ति नायव्वो॥ आवश्यक से लेकर आचाराङ्ग तक के आगम-सूत्रों का (उ २८.२१) ज्ञाता। आवश्यकमादिं कृत्वा यावदाचारस्तावत् सर्वोऽपि सूत्रस्य । सूरप्रज्ञप्ति कल्पिको भवति। (बृभा ४०६ वृ) उत्कालिक श्रुत का एक प्रकार। इसमें देवताओं और सूर्य का (द्र अर्थकल्पिक) ज्योतिष संबंधी विवेचन है। सूरचरितं पण्णविज्जते जत्थ सा सूरपण्णत्ती। सूत्रकृत द्वादशाङ्ग श्रुत का दूसरा अंग, जिसमें मुख्य रूप से आहत (नन्दी ७७ चू पृ ५८) सूत्ररुचि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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