Book Title: Jain Paribhashika Shabdakosha
Author(s): Tulsi Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 346
________________ जैन पारिभाषिक शब्दकोश 329 ससमयवत्तव्वया। (अनु 606) तल्लक्षणंच स्वलक्षणं"लक्षणदोषोऽव्याप्तिरतिव्याप्तिर्वा। (स्था 10.94 व प 467) स्वलिंगसिद्ध वह सिद्ध, जो जैन मुनि के वेश में मुक्त होता है। 'सलिंगसिद्धा' दव्वलिंगंप्रति रजोहरण-मुहपोत्ति-पडिग्गहधारणं सलिंगं, एतम्मि दव्वलिंगे द्विता एतातो वा सिद्धा सलिंगसिद्धा। (नन्दी 31 चू पृ 27) स्वस्मृति वह स्मृति, जिससे पूर्वजन्म का स्मरण होता है। .."सहसम्मुइयाए। (आ 1.3) केचिच्छिशवः बाल्यावस्थायामेव पूर्वजन्मनः सहसां स्मृति प्राप्ता भवन्ति। (आभा पृ१९) स्वहस्त क्रिया क्रिया का एक प्रकार / दूसरे के द्वारा करने योग्य क्रिया के अभिमानवश स्वयं करना। स्वहस्तक्रिया अभिमानारूषितचेतसाऽन्यपरुषप्रयत्ननिर्वत्य या स्वहस्तेन क्रियते। (तभा 6.67) स्वसमय 1. वह आत्मा, जो अपने स्वभाव में वर्तमान है, ज्ञानदर्शन-चारित्र में स्थित है, मोह आदि में परिणत नहीं है। जे पज्जयेसु णिरदा जीवा परसमयिगत्ति णिद्दिट्ठा। आदसहावम्मि ठिदा ते सगसमया मुणेदव्वा॥ (प्रव 2.2) जीवो चरित्तदंसणणाणट्रिउ, तं हि ससमयं जाण। पुग्गलकम्मपदेसट्ठियं च, तं जाण परसमयं // (ससा 2) 2. जैन सिद्धांत। (औप 26 वृ प 63) (द्र आत्मवाद) स्वहस्तपारितापनिकी क्रिया पारितापनिकी क्रिया का एक प्रकार / अपने हाथ से अपने य पराए शरीर को परिताप देना। स्वहस्तेन स्वदेहस्य परदेहस्य वा परितापनं कुर्वतः स्वहस्तपारितापनिकी। (स्था 2.10 वृ प 38) स्वसमयपरसमयवक्तव्यता प्रज्ञापन की वह विधा, जिसमें अपने व दूसरे दार्शनिक सिद्धान्तों का तुलनात्मक प्रतिपादन किया जाता है। जत्थ ससमए परसमए आघविज्जइ पण्णविज्जइसे तं ससमयपरसमयवत्तव्वया। (अनु 608) स्वाख्यात धर्म वह धर्म, जो श्रुतअध्ययन, एकाग्रता और तप से युक्त है। तिविहे भगवता धम्मे पण्णत्ते, तं जहा-सुअधिज्झिते सुन्झा- इते, सुतवस्सिते।"से सुअधिज्झिते "सुयक्खाते ण भगवता धम्मे पण्णत्ते। (स्था 3.507) .""यदेतत् स्वधीतादित्रयं भगवता वर्द्धस्वामिना धर्मः प्रज्ञप्त 'से' त्ति स स्वाख्यातः सुष्ठूक्तः सम्यग्ज्ञानक्रियारूपत्वात्। (स्थावृ प 163, स्वसमयप्रज्ञापक वह मुनि, जो इन्द्रियगम्य अथवा स्थूल विषयों के लिए हेतु या तर्क का प्रयोग करता है और अतीन्द्रिय अथवा सूक्ष्म विषयों के लिए आगम अथवा अहेतुवाद का प्रयोग करता जो हेउवायपक्खंमि हेउओ, आगमे य आगमिओ। सो ससमयपण्णवओ, सिद्धंतविराहओ अन्नो॥ (सप्र 3.45) स्वादिम 1. आहार का एक प्रकार / स्वाद अथवा मुखशुद्धि के लिा प्रयुक्त की जाने वाली वस्तुएं, जैसे-लौंग, इलायची आदि स्वादः प्रयोजनमस्येति स्वादिमं–ताम्बूलादि। (स्था 4.288 वृ प 220 2. लेह्य पदार्थ। (तवा 7.21 (द्र खादिम, उपवास) स्वसमयवक्तव्यता प्रज्ञापन की वह विधा. जिसमें अपने सिद्धान्त का प्रतिपादन किया जाता है। जत्थ णं ससमए आघविजइ पण्णविज्जइ... से तं स्वाद्य (द्र स्वादिम) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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