Book Title: Jain Paribhashika Shabdakosha
Author(s): Tulsi Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 334
________________ जैन पारिभाषिक शब्दकोश ३१७ सुखशय्या मनि-जीवन में समाधि उत्पन्न करने वाली चित्त की अवस्था। ये चार हैं-निर्ग्रन्थप्रवचन में श्रद्धा, अपने लाभ में संतुष्टि, भोगविरक्ति और वेदना के प्रति सहिष्णुता। चत्तारिसुहसेज्जाओ पण्णत्ताओ"णिग्गंथे पावयणे णिस्संकिते णिक्कंखिते""'"सएणं लाभेणं तुस्सति "दिव्वमाणुस्सए कामभोगे णो आसाएति""ममं च णं अब्भोवगमिओवक्कमियं वेयणं सम्म सहमाणस्स"एगंतसो मे णिज्जरा कज्जति-चउत्था सुहसेज्जा। (स्था ४.४५१) सुगति सद्गति, वह गति, जिसमें जीव सम्यक्त्व आदि सद्गुणों से युक्त होता है, जैसे--सिद्धगति, देवगति, मनुष्यगति। तओ सुगतीओ पण्णत्ताओ, तं जहा-सिद्धसोगती, देवसोगती, मणुस्ससोगती। (स्था ३.३७३) सुदक्षुजागरिका वह जागृत अवस्था, जो तपस्या के द्वारा अपने आपको भावित करने वाले श्रमणोपासकों को प्राप्त है। जे इमे समणोवासगा अभिगयजीवाजीवा जाव अहापरिग्गहिएहिं तवोकम्मे हिं अप्पाणं भावेमाणा विहरंति-एएणं सुदक्खुजागरियं जागरंति। (भग १२.२१) सुधर्मासभा वह कक्ष, जहां इन्द्र शयन करता है। सुधासभा यस्यां शय्या। (स्था ५.२३५ वृ प ३३४) सुपर्णकुमार भवनपति देवनिकाय का एक प्रकार । वह देववर्ग, जिसकी ग्रीवा और वक्षस्थल का भाग अति सुन्दर होता है, जिसका शरीर श्याम आभा वाला होता है, जिसका चिह्न है गरुड। अधिकप्रतिरूपग्रीवोरस्का: श्यामावदाता गरुडचिह्नाः सुपर्णकुमाराः। (तभा ४.११) सुप्रणिहितयोगी वह योगी, जो अपने प्रणिधान के द्वारा शुभ और अशुभ के विपाक को जानता है। जो पुण सुपणिहियजोगी सो सुभासुभविवागं जाणइ। (दजिचू पृ २७०) सुप्रतिष्ठकसंस्थान लोक का आकार, जो त्रिशरावसम्पुटाकार है, जैसे-एक शराव अधोमुख, उसके ऊपर दूसरा ऊर्ध्वमुख और उसके ऊपर तीसरा पुनः अधोमुख। (देखें चित्र पृ ३४२) सुप्रतिष्ठकसंस्थान: त्रिशरावसम्पुटाकारो, यथा-एकः शरावोऽधोमुखस्तदुपरि द्वितीय ऊर्ध्वमुखस्तदुपरि पुनश्चैकोऽधोमुखः। ___ (जैसिदी १.८ वृ) (देखें चित्र पृ ३४२) सुभगनाम नाम कर्म की एक प्रकृति, जिसके उदय से किसी प्रकार का उपकार किए बिना और संबंध के बिना भी जीव दूसरों को प्रिय लगता है। यदुदयवशादनुपकृदपि सर्वस्य मन:प्रियो भवति तत्सुभगनाम। (प्रज्ञा २३.३८ वृ प ४७४) सुलभबोधिक जिसके लिए बोधि की प्राप्ति सुलभ है। (भग ३.७२) सुविधि योगसंग्रह का एक प्रकार। सद् अनुष्ठान । 'सुविहि' त्ति सदनुष्ठानम्। (सम ३२.१.३ वृ प ५५) सुषमदुष्षमा काल का सुख-दु:खमय विभाग, अवसर्पिणी का तीसरा तथा उत्सर्पिणी का चौथा अर। इसका कालमान दो कोटाकोटि सागरोपम होता है। (स्था १.१३०) दो सागरोवमकोडाकोडीओ कालो सुसुमदूसमा। (भग ६.१३४) सुषमसुषमा काल का एकान्त सुखमय विभाग, अवसर्पिणी का प्रथम तथा उत्सर्पिणी का अन्तिम अर। इसका कालमान चार कोटाकोटि सागरोपम होता है। सुष्ठु समा सुषमा अत्यन्तं सुषमा सुषमसुषमा अत्यन्तसुखस्वरूपस्तस्या एव प्रथमारक इति। (स्था १.१४० वृ प २५) चत्तारि सागरोवमकोडाकोडीओ कालो सुसमसुसमा। (भग ६.१३४) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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