Book Title: Jain Paribhashika Shabdakosha
Author(s): Tulsi Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

View full book text
Previous | Next

Page 323
________________ ३०६ जैन पारिभाषिक शब्दकोश २. शास्त्रविहित विधिविधान के अनुसार सदृशकल्पी साधुओं की आहार, उपधि आदि से संबंधित पारस्परिक व्यवहार की व्यवस्था। सम्भोगः-एकमण्डल्यां समद्देशादिरूपः। (क ४.१९७) एकत्रभोजनं संभोगः। अहवा समं भोगो संभोगो यथोक्तविधानेनेत्यर्थः। (नि ५.६४ चू) (द्र साम्भोजिक) सम्मत सत्य सत्य का एक प्रकार। व्युत्पत्तिभेद होने पर भी पर्यायवाची शब्दों का एक अर्थ में प्रयोग करना, जैसे- कुमुद, कुवलय आदि पङ्क में उत्पन्न होते हैं फिर भी पङ्कज का प्रयोग अरविन्द के लिए सम्मत है। 'समय' त्ति संमतं च तत् सत्यं चेति सम्मतसत्यं, तथाहि- कुमुदकुवलयोत्पलतामरसानां समाने पङ्कसम्भवे गोपालादीनामपि सम्मतमरविन्दमेव पङ्कजमिति अतस्तत्र संमततया पङ्कजशब्दः सत्यः कुवलयादावसत्योऽसंमतत्वादिति। (स्था १०.८९ वृ प ४६४) जन्म का एक प्रकार। वह जन्म, जिसमें गर्भधारण की आवश्यकता नहीं होती, उत्पत्तिस्थान के पुद्गलों से शरीर का निर्माण हो जाता है। सम्पूर्णीमात्रं सम्मूर्च्छनम्, यस्मिन् स्थाने स उत्पत्स्यते जन्तुस्तत्रत्यपुद्गलानुपसृज्य शरीरीकुर्वन् सम्मूर्च्छनं जन्म लभते, तदेव हि तादृक् सम्मूर्च्छनं जन्मोच्यते। (तभा २.३२ वृ) जराय्वण्डपोतजनारकदेवेभ्यः शेषाणां सम्मूर्च्छनं जन्म। (तभा २.३६) सम्मूर्च्छिम अगर्भज जीव। वह प्राणी, जो गर्भ के बिना उत्पन्न होता है, उत्पत्तिस्थान के पुद्गलों का ग्रहण कर अपने शरीर की समन्ततः (चारों ओर से) मूर्च्छना (शारीरिक अवयवों की रचना) कर लेता है। सम्मृद्धिंमा अगर्भजाः। (स्था ३.३६ वृ प १०८) त्रिषु लोकेषूर्ध्वमधस्तिर्यक् च देहस्य समन्ततो मूर्च्छनं सम्मूर्छनम्-अवयवप्रकल्पनम्। (तवा २.३१) सम्मूर्छिम मनुष्य वह अमनस्क मनुष्य, जो मनुष्यक्षेत्र में गर्भज मनुष्य के मल-मूत्र आदि अशुचिस्थानों में उत्पन्न होता है, जो अन्तर्मुहूर्त में अपर्याप्त अवस्था में ही मृत्यु को प्राप्त हो जाता है। सम्मुच्छिममणुस्सा एगागारा पण्णत्ता॥ ......"अंतोमणुस्सखेत्ते..."गब्भवक्कंतियमणुस्साणं चेव उच्चारेसु वा पासवणेसु वा खेलेसु वा सिंघाणेसु वा वंतेसु वा पित्तेसु वा पूएसु वा सोणिएसु वा सुक्केसु वा सुक्कपोग्गलपरिसाडेसु वा विगतजीवकलेवरेसु वा थीपुरिससंजोएसु वा गामणिद्धमणेसु वा णगरणिद्धमणेसु वा सव्वेसु चेव असुइएसु ठाणेसु वा, एत्थ णं सम्मुच्छिम-मणुस्सा सम्मुच्छंति। अंगुलस्स असंखेज्जइभागमेत्तीए ओगाहणाए असण्णी मिच्छद्दिट्ठी अण्णाणी सव्वाहिं पज्जत्तीहिं अपज्जत्तगा अंतोमुहुत्ताउया चेव कालं करेंति। (प्रज्ञा १.८३,८४) सम्मतिस्थावरकाय सम्मति से संबंधित होने के कारण वायुकाय का अपर नाम है-सम्मति स्थावरकाय। (स्था ५.१९) (द्र इन्द्रस्थावरकाय) सम्मतिस्थावरकायाधिपति वह देव, जो वायुकायसंज्ञक स्थावरकाय का अधिपति है। (स्था ५.२०) (द्र इन्द्रस्थावरकायाधिपति) सोमबागोस वा भागम सम्मा प्रतिलेखना का एक दोष। प्रतिलेखन करते समय वस्त्र को इस प्रकार पकड़ना कि उसके बीच में सलवटें रहें अथवा प्रतिलेखनीय उपधि पर बैठकर प्रतिलेखन करना। संमर्दनं संमर्दा "वस्त्रान्तःकोणसंचलनमुपधेर्वा उपरि निषदनम्। (उ २६.२६ शावृ प ५४१) सम्मान वस्त्र आदि का उपहार देना। सम्मानो-वस्त्रपात्रादिपूजनम्। (स्था ७.१३० वृप ३८७) सम्यक् चारित्र मोक्ष-मार्ग का एक अङ्ग। वह आचरण, जिसके द्वारा असत् क्रिया की निवृत्ति और सत् क्रिया की प्रवृत्ति होती है। सम्यक्चारित्रं तु ज्ञानपूर्वकं चारित्रावृतिकर्मक्षयक्षयोपशमो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 321 322 323 324 325 326 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344 345 346