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तह सव्वे णयवाया जहाणुरूवविणिउत्तवत्तव्वा । सम्पद्दंसणसद्दं लहंति ण
विसेत्तसण्णाओ ॥
( सप्र १.२४, २५)
सम्यग्दर्शन ( व्यावहारिक )
मोक्ष मार्ग का एक अङ्ग । तीर्थंकर के द्वारा प्रतिपादित तत्त्वों में होने वाली रुचि, तत्त्वार्थ श्रद्धान, जिसका लक्षण हैप्रशम, संवेग, निर्वेद, अनुकम्पा और आस्तिक्य । प्रशम- संवेग-निर्वेदानुकम्पास्तिक्याभिव्यक्तिलक्षणं तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम् ।
(तभा १.२ )
सम्यग्दृष्टि
१. सम्यग्दृष्टि की तत्त्वरुचि ।
२. वह जीव, जो सम्यग्दृष्टि सम्पन्न होता है ।
सम्यग् अविपर्यस्ता दृष्टि: जिनप्रणीतवस्तुतत्त्वप्रतिपत्तिर्यस्य ( प्रज्ञा १९.१ वृप २४० )
स सम्यग्दृष्टिः । (द्र मिथ्यादृष्टि)
सम्यग्मिथ्यात्ववेदनीय मिथ्यात्वपुद्गलों के अर्द्ध शुद्ध होने पर जिस मोह कर्म से सम्यक्त्व और मिथ्यात्व का मिश्रण होता है, तत्त्व के प्रति न पूर्णत: श्रद्धा का भाव होता है और न पूर्णतः कुत्सा का
भाव ।
मिश्ररूपेण - जिनप्रणीततत्त्वेषु न श्रद्धानं नापि निन्देत्येवलक्षणेन वेद्यते तन्मिश्रवेदनीयम् ।
(प्रज्ञा २३.१७ वृ प ४६८)
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सम्यग्मिथ्यादर्शन
(द्र सम्यग्मिथ्यात्व वेदनीय)
सम्यग्मिथ्यादृष्ट
१. जीवस्थान/गुणस्थान का तीसरा प्रकार। सम्यग् और मिथ्या दोनों से मिश्रित रुचि वाले जीव की आत्मविशुद्धि । सम्यग् च मिथ्या च दृष्टिरस्येति सम्यग्मिथ्यादृष्टिः । (सम १४.५ वृप २६ ) २. मिथ्यात्वपुदगलों के अर्द्धशुद्ध होने पर मिश्रमोहनीय के उदय से होने वाली दृष्टि । सम्यगमिथ्यादृष्टि जीव के होने वाली तत्त्वरुचि ।
(भग १.२३३)
जैन पारिभाषिक शब्दकोश
तत्त्वार्थश्रद्धानाश्रद्धानरूपः सम्यङ्मिथ्यादृष्टिरित्युच्यते ।
( तवा ९.१.१४)
३. वह जीव, जो सम्यग्गमिथ्यादृष्टि वाला होता है। सम्यग्मिथ्याप्रयोग सम्यक्मिथ्यादर्शनपूर्वक होने वाला मन, वचन और शरीर (स्था ३.३९४ )
का व्यापार ।
सम्यग्मिथ्यारुचि
(द्र सम्यक्मिथ्यादृष्टि)
सम्यचि
(स्था ३.३९३)
(स्था ३.३९३)
(द्र सम्यक्त्व, सम्यग्दृष्टि )
सयोगिकेवली
जीवस्थान/गुणस्थान का तेरहवां प्रकार। मन, वचन और शरीर की प्रवृत्ति से युक्त केवली की आत्मविशुद्धि । सयोगी केवली - मनःप्रभृतिव्यापारवान् केवलज्ञानी । (सम १४.५ वृ प २७)
सरद्रहतडागपरिशोषण
कर्मादान का एक प्रकार सर, द्रह और तालाब को सुखा कर आजीविका चलाना ।
सरसः - स्वयंभूतजलाशयविशेषस्य हृदस्य – नद्यादिषु निम्नतरप्रदेशलक्षणस्य तडागस्य - - कृत्रिमजलाशयविशेषस्य परिशोषणम् ।
(भग ८.२४२ वृ)
सरागसंयम
वह संयम, जो कषाययुक्त मुनि के होता है। सरागसंयमेन - सकषायचारित्रेण
।
(स्था ४.६३१ वृ प २७२ )
सराग सम्यक्त्व
वह सम्यक्त्व, जो शम, संवेग आदि लक्षणों से अभिव्यक्त होता है।
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प्रशमसंवेगानुकम्पास्तिक्याभिव्यक्तलक्षणं प्रथमम् । सरागसम्यक्त्वमित्युच्यते । ( तवा १.२.३० ) (द्र सराग सम्यग्दर्शन)
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