Book Title: Jain Paribhashika Shabdakosha
Author(s): Tulsi Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 315
________________ २९८ जैन पारिभाषिक शब्दकोश संतिष्ठतेऽनेन रूपेण पुद्गलात्मकं वस्त्विति संस्थानम्आकारविशेषः। (उसुवृ प २७) संसृष्टोपहत मुनि को ऐसा भोजन देना, जो दाता द्वारा खाने के लिए हाथ में उठाया हुआ हो। संसृष्टं नाम-भोक्तुकामेन गृहीतकूरादौ क्षिप्तो हस्तः क्षिप्तो न तावत् मुखे क्षिपति तच्च लेपालेपकरणस्वभावमिति, तदेवंभूतमुपहृतं संसृष्टोपहृतम्। (स्था ३.३७९ वृ प १३८) (द्र शुद्धोपहत) संसेकिम चतुर्थभक्त (उपवास) वाले मुनि के द्वारा ग्राह्य पानकं का एक प्रकार । घटिया अन्न, कैर आदि के धोने, भिगोने और उबालने के बाद रहा हुआ पानी। संसेकेन निर्वृत्तमिति संसेकिमं-अरणिकादिपत्रशाकमुक्ताल्यो येन शीतलजलेन संसिच्यते तदिति। (स्था ३.३७६ वृ प १३७) संस्थान नाम नामकर्म की एक प्रकृति, जिसके उदय से शरीर की आकृतिरचना होती है। आकारविशेषस्तेष्वेव गृहीतसंघातितबद्धेषु औदारिकादिषु पदगलेषु संस्थानविशेषो यस्य कर्मण उदयाद् भवति तत्संस्थानम्। (प्रज्ञा २३.४६ वृप ४७२) संस्थान विचय धर्म्यध्यान का चतुर्थ प्रकार । लोक अथवा द्रव्यों की विविध आकृतियों को ध्येय बनाकर उसमें होने वाली एकाग्रता । संस्थानविचयं नाम चतुर्थं धर्मध्यानमुच्यते, संस्थानम्आकारविशेषो लोकस्य द्रव्याणां च। (तभा ९.३७ वृ) संस्वेदज पसीने से उत्पन्न जीव, जैसे-खटमल, जूं आदि। संस्वेदाज्जाता इति संस्वेदजा-मत्कुण-यूका-शतपदिकादयः। (द ४.९ हावृ प १४१) संस्तव उत्पादन दोष का एक प्रकार। परस्पर परिचय-प्रशंसा कर भिक्षा लेना। द्विविधः खलु संस्तवः-परिचयरूपः श्लाघारूपश्च, तत्र परिचयरूपः-सम्बन्धिसंस्तवः, श्लाघारूपो-वचनसंस्तवः। (पिनि ४८४ वृ प ८९) संस्तारकमण्डली मण्डली का एक विभाग। इस व्यवस्था के अनुसार श्रमण विधिपूर्वक शयन करते हैं। (द्र मण्डली) संस्तृत वह मुनि, जिसे पर्याप्त भक्त-पान उपलब्ध हो जाता है। भत्तपाणं पज्जत्तं लभंतो संथडो भण्णति। (निचू ३ पृ७४) संस्थान १. आकृति, जो शरीर के अवयवों की रचना से निष्पन्न होती है। संस्थानं-शरीराकृतिरवयवरचनात्मिका। (स्था ६.३१ वृ प ३३९) २. पौद्गलिक वस्तुओं अथवा पुद्गलस्कन्धों के विविध आकार। संहनन १. अस्थि-रचना अथवा शरीर में कठोर भाग की रचना, जिसके आधार पर शरीर का ढांचा बनता है, जैसेवज्रऋषभनाराच आदि छह संहनन। संहननम्-अस्थिसञ्चयः। (स्था ६.३० वृ प ३३९) संहननम्-अस्थिरचनाविशेषः। (प्रज्ञा २३.२५ वृप ४७०) वजरिसभणारायं पढमं बितियं च रिसभणारायं। णाराय अद्धणारायं कीलिया तह य छेव१॥ (आवहाव १ पृ २२५) २. अस्थिसंचय से उपमित शक्तिविशेष. जैसे-देवों का शरीर। इह चेत्थंभूतास्थिसञ्चयोपामितः शक्तिविशेषः संहननमच्यते न त्वस्थिसञ्चय एव, देवानामस्थिरहितानामपि प्रथमसंहननयुक्तत्वात्। (आवहावृ प २२५) संहनन नाम नामकर्म की एक प्रकृति, जिसके उदय से औदारिक शरीर में अस्थि तथा कठोर भाग की रचना होती है। यदुदयादस्थिबन्धनविशेषस्तत् संहननम्। (तवा ८.११.९) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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