Book Title: Jain Paribhashika Shabdakosha
Author(s): Tulsi Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 313
________________ २९६ जैन पारिभाषिक शब्दकोश संवर अनुप्रेक्षा अष्टम अनुप्रेक्षा—कर्मागमन के मार्गों को रोकने के लिए संवर के गुणों का चिन्तन करना। संवरांश्च महाव्रतादीन् गुप्त्यादिपरिपालनाद् गुणतश्चिन्तयेत्। (तभा ९.७) कर्मागमद्वारसंवरणे सति नास्ति श्रेयःप्रतिबन्ध इति संवरगुणानुचिन्तनं संवरानप्रेक्षा। (तवा ९.७.७) संवरद्वार कर्म-निरोध का हेतु, उपाय। संवरणं-जीवतडागे कर्मजलस्य निरोधनं संवरस्तस्य द्वाराणि-उपायाः। (स्था ५.११० वृ प ३०१) संवृतचारी। (सूत्र १.१.५६ चू पृ ३८) संवृत बकुश बकुश निर्ग्रन्थ का एक प्रकार। वह मुनि, जो छिप-छिपकर शरीर आदि की विभूषा करता है। शरीरोपकरणभूषयोः प्रच्छन्नकारी संवृतबकुशः। (स्था ५.१८६ वृ प ३२०) संवृत योनि वह उत्पत्ति स्थान, जो संकड़ा, प्रच्छन्न होता है। (तभा २.३३ वृ) (द्र संवृतविवृत योनि) संवृतविवृत योनि वह उत्पत्ति स्थान, जो कुछ संकड़ा और कुछ चौड़ा होता है। संवृता प्रच्छन्ना सङ्कटा वा। तद्विपरीता विवृता। मिश्रोभयस्वभावा। (तभा २.३३ वृ) संविग्न १. चैत्यवासी परम्परा से पृथग्भुत संविग्न-परम्परा का साधु, आगमोक्त आचार का अनुसरण करने वाला मुनि। २. मुनि के लिए निर्धारित निवास की मर्यादा के अनुसार वार्षिक यात्रा-मासकल्प करने वाला। 'संविग्नाः'उद्यतविहारिणः । (बृभा १११४ वृ) (द्र चैत्यवासी) संवेग सम्यक्त्व का एक लक्षण। १. संसार से उद्विग्नता। २. मोक्ष की अभिलाषा। संवेगो-भवभयं मोक्षाभिलाषो वा। (भग ११.१७२ ७) संवित्ति आत्मानुभव के क्षण में होने वाला निर्विकल्प आन्तरिक सुख। लक्खणदो णियलक्खं अणुहवमाणस्स जं हवे सोक्खं। सा संवित्ती भणिया सयलवियप्पाण णिद्दहणा॥ (नच ३५१) संवेदनी कथा कथा का एक प्रकार । जीवन की नश्वरता और दुःखबहुलता तथा शरीर की अशुचिता दिखाकर वैराग्य उत्पन्न करने वाली कथा। संवेगयति-संवेगं करोतीति संवेद्यते वा–संबोध्यते संवेज्यते वा-संवेगं ग्राह्यते श्रोताऽनयेति संवेदनी संवेजनी (स्था ४.२४६ वृ प २००) वेति। संवृत वह भिक्षु, जो मन, वाणी और काय के संवर से युक्त होता है, आश्रवद्वारों का निरोध करता है। "मणवयकायसुसंवुडे जे स भिक्खू॥ (द १०.७) आश्रवद्वाराणां रोधेनेन्द्रियनिरोधेन च संवृतः। (सूत्रवृ प २०४) संव्यवहार प्रत्यक्ष इन्द्रिय और मन से होने वाला प्रत्यक्ष ज्ञान। इंदियमणोभवं जं तं संववहारपच्चक्खं। (विभा ९५) संवृतचारी संयम का उपक्रम करने वाला। वह मुनि, जो प्रत्येक प्रवृत्ति को संयमपूर्वक करता है। संवृतचारिणो नाम संवृतः संयमोपक्रमः तच्चरणशील: संशय दो धर्मों से रहित वस्तु में दो धर्मों का स्पर्श करने वालास्थाणु है या पुरुष-इस प्रकार का ज्ञान । __ अनुभयत्रोभयकोटिस्पर्शी प्रत्यय: संशयः। (प्रमी १.१.५) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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