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जैन पारिभाषिक शब्दकोश
संज्वलन मान चारित्रमोहनीय कर्म की एक प्रकति। यह मान सीसम जातीय लता के समान अत्यल्प स्तब्ध होता है। (द्र संज्वलनकषाय) तिणिसलताथंभसमाणे।
(स्था ४.२८३)
उठने वाले शब्दों को सुनकर जिससे प्रत्युत्तर दिया जाता है, वह ऋद्धि। सोदिंदियसुदणाणावरणाणं वीरियंतरायाए। उक्कस्सक्खउवसमे उदिदंगोवंगणामकम्मम्मि॥ सोदक्करस्सखिदीदो बाहिं संखेन्जजोयणपएसे। संठियणरतिरियाणं बहुविहसद्दे समुटुंते॥ अक्खरअणक्खरमए सोदूणं दसदिसासुपत्तेक्कं। जं दिज्जदि पडिवयणं तं चिय संभिण्णसोदित्तं॥
(त्रिप्र ४.९८४-९८६) (द्र सम्भिन्नश्रोतोलब्धि)
संज्वलन माया चारित्रमोहनीय कर्म की एक प्रकृति । यह माया छिलते बांस । की छाल के समान अत्यल्प वक्र होती है। अवलेहणिय केतणासमाणा।
(स्था ४.२८२) (द्र संज्वलनकषाय)
सम्भिन्नश्रोतो लब्धि संभिन्नश्रोतोलब्धिसम्पन्न पुरुष वह है• जो शरीर के किसी एक भाग से पांचों इन्द्रिय-विषयों को
जान लेता है। • जो बारह योजन विस्तृत चक्रवर्ती की सेना में एक साथ बोले जाने वाले नानाविध शब्दों को एक साथ सुनकर उनको पृथक्-पृथक् जान लेता है। जो किसी एक इन्द्रिय से पांचों इन्द्रिय-विषयों को जान लेता है। • जो सर्व अंग-उपांगों से सभी इन्द्रिय-विषयों को जानता
संज्वलन लोभ चारित्रमोहनीय कर्म की एक प्रकृति । यह लोभ हल्दी के रंग के समान अत्यल्प आसक्ति वाला होता है। हलिद्दरागरत्तवत्थसमाणे।
(स्था ४.२८४) (द्र संज्वलनकषाय) संनिषद्यासम्भोज सांभोजिक साधुओं के पारस्परिक व्यवहार का एक प्रकार। दो सांभोजिक आचार्यों का निषद्या पर बैठकर श्रुतपरिवर्तना आदि करना। संनिषद्यागत आचार्यो निषद्यागतेन सम्भोगिकाचार्येण सह श्रुतपरिवर्त्तनां करोति शुद्धः। (सम १२.२ ७ प २३) संभिन्नलोकनाडी सम्पूर्ण लोकनाडी, जो चौदह रज्जु प्रमाण है और कन्याचोलक संस्थान में संस्थित है। (देखें चित्र पृ ३४२) 'संभिण्णलोगनालिं'संभिन्नलोकनाडी चतुर्दशरज्जवात्मिकां कन्यकाचोलकसंस्थानम्"। (आवनि ५० हावृप २७) (द्र त्रसनाडी) (देखें चित्र पृ ३४२)
•जो चक्रवर्ती की सेना में एक साथ सनाई देने वाली सभी
वाद्यों की ध्वनियों को पृथक्-पृथक् जान लेता है। • जो सर्वतः सुनता है, सब श्रोतों-इन्द्रियों से सब विषयों
को जानता है अथवा एक साथ अनेक प्रकार के शब्दों को भिन्न-भिन्न रूप में (अपने-अपने गणधर्मों के अनुरूप)
सुन लेता है। संभिन्नसोयरिद्धी नाम जो एगतरेणवि सरीरदेसेण पंच वि इंदियविसए उवलभति, सो संभिन्नसोय त्ति भन्नति। """इंदियत्थे उवलभति। अहवा सव्वेहिं अंगोवंगेहिं। अहवा चक्कवट्टिखंधावारे सव्वतूराणं विसेसं उवलभति।
(आवचू१ पृ.६८,७०) द्वादशयोजनायामे नवयोजनविस्तारे चक्रधरस्कन्धावारे गजवाजिखरोष्ट्रमनुष्यादीनाम् अक्षरानक्षररूपाणां नानाविधशब्दानां युगपदुत्पन्नानांतपोविशेषबललाभापादित सर्वजीवप्रदेशश्रोत्रेन्द्रियपरिणामात् सर्वेषामेककालग्रहणं संभिन्नश्रोतृत्वम्।
(तवा ३.३६ पृ २०२)
सम्भिन्नश्रोतृत्व बुद्धि ऋद्धि का एक प्रकार। श्रोत्रेन्द्रियावरण, श्रुतज्ञानावरण और वीर्यान्तरायकर्म का उत्कृष्ट क्षयोपशम तथा शरीराङ्गो-- पाङ्गनाम कर्म का उदय होने पर श्रोत्रेन्द्रिय के उत्कृष्ट क्षेत्र से बाहर दशों दिशाओं में संख्यात योजन प्रमाण क्षेत्र में स्थित मनुष्य एवं तिर्यंचों के अक्षर-अनक्षरात्मक बहुत प्रकार के
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