Book Title: Jain Paribhashika Shabdakosha
Author(s): Tulsi Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 310
________________ जैन पारिभाषिक शब्दकोश २९३ संज्ञाज्ञानं नाम यत्तैरेवेन्द्रियैरनुभूतमर्थं प्राक् पुनर्विलोक्य स एवायं यमहमद्राक्षं पूर्वाह्न इति संज्ञाज्ञानमेतत्। __ (तभा १.१३ वृ) २. कर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न ज्ञान, जैसे-ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से होने वाली आभिनिबोधिकज्ञानसंज्ञा। खओवसमिया णाणावरणखओवसमेण आभिणिबोहियनाणसण्णा भवति। (आवचू २ पृ८०) ३. कर्मों की भिन्न-भिन्न प्रकृतियों के उदय से होने वाली आहार आदि संज्ञाएं। आहारादिविषयाभिलाषः संज्ञेति। (ससि २.२४.१८२) ४. देव, गुरु और धर्मविषयक यथार्थ ज्ञान। संज्ञा नाम-देव-गुरु-धर्मतत्त्वानां यथावत् परिज्ञानम्। (बृभा २५६२ वृ) ५. संवेदन-इन्द्रिय और मन के बिना होने वाला सामान्य संज्ञिश्रुत श्रुतज्ञान का एक प्रकार। कालिक्युपदेश, हेतूपदेश और दृष्टिवादोपदेश संज्ञा से युक्त प्राणी का श्रुत। सण्णिसुयं तिविहं पण्णत्तं, तं जहा-कालिओवएसेणं हेउवएसेणं दिट्ठिवाओवएसेणं। (नन्दी ६१) संज्ञी १. अवधिज्ञानी। २. जातिस्मृतिज्ञानसम्पन्न। ३. मानसिक पटुता वाला। संज्ञी-अवधिज्ञानी जातिस्मर: सामान्यतो विशिष्टमन:पाटवोपेतो वा। (प्रज्ञावृ प २५३) ४. अविरतसम्यग्दृष्टि, चतुर्थ गुणस्थान का अधिकारी। 'संज्ञी' अविरतसम्यग्दृष्टिः । (बृभा १९११ वृ) ५. अणुव्रतों को स्वीकार करने वाला श्रावक। 'संज्ञी' गृहीताणुव्रतः। (बृभा १९२६ वृ) ६. श्रावक, जिसमें देव, गुरु और धर्म रूप तत्त्वों का यथार्थ परिज्ञान होता है। देव-गुरु-धर्मतत्त्वानां यथावत् परिज्ञानं सा विद्यते येषां ते संज्ञिनः, श्रावकाः। (बृभा २५६२ वृ) ७. समनस्क-मन-सहित। संज्ञिन: समनस्काः । (तसू २.२५) समनस्का:-दीर्घकालिकविचारणात्मिकया संज्ञया युक्ताः संज्ञिन इति। (जैसिदी ३.६ ७) ज्ञान। (द्र ओघसंज्ञा) संज्ञाक्षर अक्षरश्रुत का एक प्रकार । अक्षर का आकार या लिपि। सण्णक्खरं-अक्खरस्स संठाणागिई। (नन्दी ५७) संज्ञा सूत्र वह सूत्र, जिसमें सामयिकी संज्ञा-आगम के सांकेतिक शब्दों का प्रयोग होता है। यत् सामयिक्या संज्ञया सूत्रं भण्यते तत् संज्ञासूत्रम्। (बृभा ३१६ वृ) संज्ञिपञ्चेन्द्रिय वह पञ्चेन्द्रिय जीव, जो मनसहित होता है। (भग २४.३००) संज्ञिनः-गर्भजतिर्यड्मनुष्या देवनारकाश्च। (बृभा १११२ वृ) (द्र संज्ञी) संज्वलन कषाय चारित्रमोहनीय कर्म की वह प्रकृति-कषायचतुष्टयी (क्रोध, मान, माया, लोभ), जिसके उदयकाल में वीतराग-चेतना जागृत नहीं होती और जो सर्वविरत मुनि को भी किञ्चित् ज्वलित करती है। संज्वलन:-यथाख्यातचारित्रावारकः । (स्था ४.२८४ वृ प १८३) संज्ञिभूत १. समनस्क योनि से मरकर पुनः समनस्क योनि में पैदा होने वाला जीव। (प्रज्ञा १७.९) २. मस्तिष्कीय विकास के पूर्ण होने पर जिसका मन व्यक्त हो चुका हो। संज्वलन क्रोध चारित्रमोहनीय कर्म की एक प्रकति । यह क्रोध जल की रेखा के समान अत्यल्प काल तक टिकने वाला होता है। उदगराइसमाणे। (स्था ४.३५४) (द्र संज्वलनकषाय) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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