Book Title: Jain Paribhashika Shabdakosha
Author(s): Tulsi Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 316
________________ जैन पारिभाषिक शब्दकोश संहननबन्ध अवयवों तथा पृथक्-पृथक् वस्तुओं का संघात । बैलगाड़ी के अवयवों का संयोजन देशसंहनन बंध और दूध - पानी की भांति मिलन सर्वसंहनन बंध है । संहननं - अवयवानां तद्रूपो यो बन्धः स संहननबन्धः । (भग ८.३५६ वृ) शकटाङ्गादीनामिवेति देशसंहननबन्धः, क्षीरनीरादीनामिवेति सर्वसंहननबन्धः । (भग ८.३६० वृ) संहिता पदों का ऐसा सम्पर्क अथवा उच्चारण, जो शीघ्रता से अर्थबोध देने वाला होता है। यो द्वयोर्बहूनां वा पदानां 'परः' अस्खलितादिगुणोपेतो विविक्ताक्षरो झटिति मेधाविनामर्थप्रदायी' सन्निकर्ष: ' सम्पर्कः संहिता । (बृभा ३०३ वृ) संहृत एषणा दोष का एक प्रकार। मुनि को देय वस्तु देने के लिए अदेय-सचित्त वस्तु को अलग कर भिक्षा देना । येन मात्रकेण दास्यति दात्री तत्रादेयं किमप्यस्ति अशनादिकं सचित्तपृथ्वीकायादिकं वा ततस्तददेयमन्यत्र स्थानान्तरे क्षिप्त्वा ददाति । (पिनि ५२० वृप १०२ ) सकल प्रत्यक्ष केवलज्ञान, जिसके द्वारा मूर्त और अमूर्त सब द्रव्यों का साक्षात् ग्रहण होता है। केवलणाणं च तहा अणोवमं सयलपच्चक्खं । (नच १७० ) सकलादेश एक धर्म के माध्यम से अनन्तधर्मात्मक वस्तु का युगपत् प्रतिपादन करने वाला वचन । प्रमाणप्रतिपन्नानन्तधर्मात्मकवस्तुनः कालादिभिरभेदवृत्तिप्राधान्यादभेदोपचाराद्वा यौगपद्येन प्रतिपादकं वचः सकलादेश: । (प्रनत ४.४४ ) सकाम निर्जरा मोक्ष - प्राप्ति के उद्देश्य से की जाने वाली निर्जरा । सह कामेन मोक्षाभिलाषेण विधीयमाना निर्जरा सकामा । (जैसिदी ५.१८ वृ) Jain Education International सकाम मरण (द्र पण्डितमरण) सकेतक प्रत्याख्यान (द्र संकेतक प्रत्याख्यान ) सचित्त वह द्रव्य, जिसमें चेतना होती है। सह चित्तेन वर्तत इति सचित्तं चेतनावद् द्रव्यम् । २९९ (उ ५.१७) सचित्त प्रतिमा उपासक प्रतिमा का सातवां प्रकार, जिसमें प्रतिमाधारी उपासक चतुर्विध सचित्त आहार का त्याग करता है। इसका साधनाका सात मास का 1 सत्तमि सत्त उ मासे नवि आहारइ सचित्तमाहारं । (द्र मिश्र योनि) सचित्ताचित्त योनि (ससि ७.३५) सचित्त महास्कन्ध वह जीव-अधिष्ठित कर्म- पुद्गलमय महास्कन्ध, जो केवलीसमुद्घात के चौथे समय में होता है तथा जो लोकव्यापी और चतुःस्पर्शी होता है। जैनसमुद्घाते यः सचेतनजीवाधिष्ठितत्वात् सचित्तः कर्मपुद्गलमयो महास्कन्धः । चतुर्थे समये द्वावपि लोकक्षेत्रं व्याप्नुतः, अष्टसामयिकं च कालं द्वावपि तिष्ठतः, वर्णपञ्चक-गन्धद्वय-रसपञ्चक-स्पर्शचतुष्टयलक्षणगुणयुक्तौ (विभा ६४४ वृ) For Private & Personal Use Only ( प्रसा ९८९ ) च द्वावपि भवतः । सचित्त योनि वह उत्पत्तिस्थान, जो जीव के प्रदेशों से अधिष्ठित होता है। (तभा २.३३ वृ) (द्र मिश्र योनि) सचित्ताहार जीव- सहित पुद्गलों का आहार करने वाला । (तभा २.३३) www.jainelibrary.org

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