Book Title: Jain Paribhashika Shabdakosha
Author(s): Tulsi Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 303
________________ २८६ जैन पारिभाषिक शब्दकोश अट्ठारसेव पुरिसे, वीसं इत्थीओ दस णपुंसा य। दिक्खेति जो ण एते, सेहट्ठवणाए सो कप्पो॥ (बृभा ६४४३ वृ) (द्र शैक्षस्थापना अकल्प) श्याम परमाधार्मिक देवों का एक प्रकार । वे असुर देव, जो पुण्यहीन नैरयिकों के अंगोंपांगों का छेदन करते हैं, उन्हें नीचे गिराते हैं, शूल में पिरोते हैं, रज्जु से बांधते हैं, लात से प्रहार कर उन्हें व्यथित करते हैं। साडण-पाडण-तोदण-विंधण रज्जूलतप्पहारेहिं। सामा नेरइयाणं पवत्तयंती अपुण्णाणं॥ (सूत्रनि ७०) शैला अधोलोक (नरक) की तीसरी पृथ्वी का नाम। (स्था ७.२३) (द्र अञ्जना) शैलेशी अवस्था योगनिरोध की अवस्था, अयोगिकेवली (चौदहवें जीवस्थान) की अवस्था, जिसमें जीव शैलेश-मेरु की भांति निष्प्रकम्प हो जाता है, पांच हस्व अक्षर-क, ख, ग, घ, के उच्चारणकाल जितनी स्थिति में अयोगीकेवली रहकर फिर सब कर्मों से मुक्त हो जाता है। अजोगीकेवली नाम सेलेसिं पडिवन्नओ।सो यतीहिं जोगेहिं विरहितो जाव कखगघङ इच्चेताई पंचहस्सक्खराई उच्चारिजंति एवतियं कालमजोगिकेवली भवितूण ताहे सव्वकम्मविणिमुक्को सिद्धो भवति। (आवचू २ ११३६) शोक १. नोकषाय चारित्रमोहनीय कर्म की प्रकृति। जिसके उदय से व्यक्ति सकारण अथवा अकारण शोकाकुल हो जाता है। यदुदयेन शोकरहितस्यापि जीवस्याक्रन्दनादिः शोको जायते तच्छोककर्मेति। (स्था ९.६९ वृ प ४४५) । २. मानसिक वेदना, जिसके द्वारा संताप (तनाव) पैदा होता । श्रद्धा १. तत्त्वों के प्रति श्रद्धान, प्रतीति करना। २. सम्यग् अनुष्ठान करने की इच्छा। तत्त्वानि जीवादीनि "तेषां श्रद्धानं तेषु प्रत्ययावधारणम्। (तभा १.२) श्रद्धा-तत्त्वश्रद्धानं सदनुष्ठानचिकीर्षा वा। (भग ११.१७२ वृ) श्रमण १. चतुर्विध श्रमणसंघ का एक अंग, जो प्राणातिपात, मृषावाद, परिग्रह, क्रोध, मान, माया, लोभ, प्रेयस्, द्वेष से विरत और व्युत्सृष्ट काय वाला है-देहाध्यास से ऊपर उठा हुआ है। (भग २०.७४) एत्थ वि समणे अणिस्सिए अणिदाणे आदाणं च अतिवायं च मुसावायं च बहिन्द्धं च कोहं च माणं च मायं च लोहं च पेज्जं च दोसं च-इच्चेव जतो-जतो आदाणाओ अप्पणो पदोसहेऊ ततो-ततो आदाणाओ पव्वं पडिविरते सिआ दंते दविए वोसट्ठकाए 'समणे'त्ति वच्चे। (सूत्र १.१६.४) (द्र श्रमणसंघ) २. वह व्यक्ति जो श्रम-तपस्या करता है। श्राम्यन्तीति श्रमणाः, तपस्यन्तीत्यर्थः। (दहावृ प ६८) श्रमणधर्म श्रमणों द्वारा आचरणीय क्षति, मुक्ति आदि दस धर्म। दसविधेसमणधम्मे पण्णत्ते, तं जहा-खंती, मुत्ती, अज्जवे, मद्दवे, लाघवे, सच्चे, संजमे, तवे, चियाए, बंभचेरवासे। (स्था १०.१६) (द्र यतिधर्म) जेणं जीवा माणसं वेदणं वेदेति तेसिणं जीवाणं सोगे। (भग १६.२९) शोधि प्रायश्चित्त। वह तप, जिससे दोष की विशुद्धि होती है। 'शोधि:' प्रायश्चित्तम्। (बृभा ४९४२ वृ) शौच धर्म श्रमण धर्म अथवा उत्तम धर्म का एक प्रकार। लोभ का वर्जन। अलोभः शौचलक्षणम्। (तभा ९.६४) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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