Book Title: Jain Paribhashika Shabdakosha
Author(s): Tulsi Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 297
________________ २८० जैन पारिभाषिक शब्दकोश शेषास्तू त्रयः शब्दवाच्यार्थगोचरतया शब्दनया:। (प्रनत ७.४५) शब्दपरिचारक महाशुक्र और सहस्रार कल्पवासी देव, जिनकी कामेच्छा । देवी के शब्दश्रवण मात्र से शांत हो जाती है। दोसुकप्पेसुदेवा सद्दपरियारगा पण्णत्ता,तं जहा-महासुक्के चेव, सहस्सारे चेव। (स्था २.४५९) शब्दाकुलक आलोचना आलोचना का एक दोष। जोर-जोर से बोलकर, दूसरे अगीतार्थ साधु सुनें, वैसे आलोचना करना। 'सद्दाउलयं' ति शब्देनाकुलं शब्दाकुलं-बृहच्छब्द, तथा महता शब्देनालोचयति यथाऽन्येऽप्यगीतार्थास्ते शृण्वन्ति। (स्था १०.७० वृ प ४६०) सेज्जा वसती"सेज्जातरो, तस्स भिक्खा सेज्जातरपिंडो। (द ३.५ अचू पृ ६१) शय्या परीषह परीषह का एक प्रकार। कोमल या कठोर, ऊंचे या नीचे स्थान में शयन से उत्पन्न वेदना, जो मुनि के द्वारा समभावपूर्वक सहनीय है। उच्चावयाहिं सेज्जाहिं, तवस्सी भिक्ख थामवं। नाइवेलं विहन्नेज्जा, पावदिट्ठी विहन्नई। पइरिक्कुवस्सयं लद्धं, कल्लाणं अदु पावर्ग। किमेगरायं करिस्सइ, एवं तत्थऽहियासए॥ (उ २.२२, २३) शय्यासमितियोग सर्वअदत्तादानविरमण (अचौर्य महाव्रत) की एक भावना। मुनि के लिए वृक्ष आदि का छेदन-भेदन किया हो, वैसी शय्या और आसन का प्रयोग न करना। पीढ-फलग-सेज्जासंथारगट्ठयाए रुक्खा न छिंदियव्वा, न य छेदणेण भेयणेण य सेज्जा कारेयव्वा "एवं सेज्जासमितिजोगेण भाविओ भवति अंतरप्या। (प्रश्न ८.११) शब्दानुपात देशावकाशिक व्रत का एक अतिचार। संकल्पित देश के बाहर स्थित व्यक्ति को व्यापार आदि के लिए शब्द से संकेत करना। ..""व्यापारकरान् पुरुषान् उद्दिश्याभ्युत्कासिकादिकरणं शब्दानुपात इति शब्द्यते। (तवा ७.३१.३) शम सम्यक्त्व का एक लक्षण। क्रोध आदि कषायों की शान्ति। कषायविजय और इन्द्रियविजय की चेतना। शम:-शान्तिः । (जैसिदी ५.९ वृ) शमः कषायेन्द्रियजयः। (योशा २.४० वृ पृ २७०) शयनपुण्य पुण्य का एक प्रकार। पात्र (संयमी) को शय्या-संस्तारक देने से होने वाला पुण्य प्रकृति का बंध। (द्र अन्नपुण्य) शरीर शरीरनामकर्म के उदय से औदारिक आदि वर्गणाओं से निष्पन्न होने वाली आकृतिरचना, जो पौद्गलिक सुख-दुःख के अनुभव का साधन तथा ज्ञान का हेतु है। सुखदुःखानुभवसाधनं शरीरम्। (जैसिदी ७.२४) शरीरनाम नामकर्म की एक प्रकृति, जिसके उदय से जीव औदारिक शरीर आदि के प्रायोग्य पुद्गलों को ग्रहण कर औदारिक शरीर आदि के रूप में उन्हें परिणत कर आत्मप्रदेशों के साथ उनका परस्पर सम्बन्ध कर देता है। यदुदयादौदारिकशरीरप्रायोग्यान् पुदगलानादाय औदारिकशरीररूपतया परिणमयति परिणमय्य च जीवप्रदेशैः सह परस्परानुगमरूपतया सम्बन्धयति तदौदारिकशरीरनाम, एवं शेषशरीरनामान्यपि भावनीयानि। (प्रज्ञा २३.४१ वृप ४६९) शरीरपरिग्रह शरीर के प्रति होने वाला ममत्व। (भग १८.१२३) शय्यातर सागारिक, स्थानदाता, उपाश्रय देने वाला। शय्यातरः-साधुवसतिदाता। (दहावृ प ११७) शय्यातरपिण्ड १. मुनि के लिए अनाचार का एक प्रकार । स्थानदाता के घर से भिक्षा लेना। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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