Book Title: Jain Paribhashika Shabdakosha
Author(s): Tulsi Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 279
________________ २६२ ३. वह वायु, जो उत्पत्तिकाल में अचेतन होती है और परिणामान्तर होने पर सचेतन भी हो सकती है। जैसेआक्रांत, ध्मात आदि । पंचविधा अचित्ता वाउकाइया पण्णत्ता, तं जहा - अक्कंते, धंते, पीलिए, सरीराणुगते, संमुच्छिमे । एते च पूर्वमचेतनास्ततः सचेतना अपि भवन्तीति । (स्था ५.१८३ वृ प ३१९ ) वायुकायिक वे जीव, जिनका शरीर वायु है। वायुः चलनधर्मा प्रतीत एव स एव कायः - शरीरं येषां ते वायुकायाः, वायुकाया एव वायुकायिकाः । (द ४ सूत्र ३ हावृ प १३८ ) वायुचारण चरण ऋद्धि का एक प्रकार । वह मुनि, जो वायु की प्रदेशपंक्ति का आश्रय लेकर अस्खलित रूप से चरणविन्यास करता है । पवनेष्वनेकदिग्मुखोन्मुखेषु प्रतिलोमानुलोमवृत्तिषु तत्प्रदेशावलीमुपादाय गतिमस्खलितचरणविन्यासामास्कन्दन्तो वायुचारणाः । (योशा १.९ वृ पृ ४५) वायु वह जीव, जो वायु को शरीररूप में ग्रहण करने के लिए प्रस्थित है - कार्मण काययोग में वर्तमान है। वायुं कायत्वेन गृहीतुं प्रस्थितो जीवो वायुजीव उच्यते । (तश्रुवृ २.१३) वारुणी धारणा पिण्डस्थ ध्यान का एक प्रकार, जिसमें साधक यह अनुभव करता है कि दोषों के दग्ध होने से निष्पन्न हुई भस्म के अवशिष्ट भाग को मेघराशि प्रक्षालित कर रही है। स्मरेद् वर्षत् सुधासारैर्घनमालाकुलं नभः । ततोऽर्धेन्दुसमाक्रान्तं मण्डलं वरुणाङ्कितम् ॥ नभस्तलं सुधाम्भोभिः प्लावयत् तत्पुरं ततः । तद्रजः कायसम्भूतं क्षालयेदिति वारुणी ॥ (योशा ७.२१, २२) महामेघेन तद्भस्मप्रक्षालनाय चिन्तनं वारुणी । (मनो ४.२१) वालुका परमाधार्मिक देवों का एक प्रकार। वे असुर देव, जो नैरयिकों Jain Education International जैन पारिभाषिक शब्दकोश को वालुकापात्र में चनों की भांति भुनते हैं तथा कदम्बाकार पात्र में उन्हें गिराकर आकाश में उछालते हैं । तडतडतडत्ति भज्जंति, भायणे कलंबवालुगापट्टे । वालूगा नेरइया, लोलंति अंबरतलम्मि ॥ (सूत्रनि ७९) वासुदेव अर्द्ध चक्रवर्ती, तीन खण्ड भूमि का स्वामी, जो बीस लाख अष्टापद शक्ति से युक्त होता है, जिसका अस्त्र है चक्र | जं सवस्स उ बलं तं दुगुणं होइ चक्कवट्टिस्स । तत्तो बला बलवगा ॥ वासुदेवाः सप्तरत्नाधिपाः अर्द्धभरतप्रभवः । (आवनि ७५) (आवमवृ प ७९) जहा से वासुदेवे, संखचक्कगयाधरे । अप्पsिहयबले जोहे ॥ ( उ ११.२१) वास्तुविद्या वह विद्या, जिसके द्वारा प्रासाद आदि की रचना के आधार पर शुभ - अशुभ का निर्देश किया जाता है। 'वास्तुविद्या' प्रासादादिलक्षणाभिधायिशास्त्रात्मिका । (उशावृ प ४१७ ) विकथा वह कथा, जिससे संयम में बाधा उत्पन्न होती है, जो चारित्र के विपरीत या विरुद्ध होती है । विरुद्धा संयमबाधकत्वेन कथा – वचनपद्धतिर्विकथा | (स्था ४.२४१ वृ प १९९) विरुद्धाश्चारित्रं प्रति स्त्र्यादिविषयाः कथा विकथाः । (सम ४.३ वृ प ९) विकल प्रत्यक्ष वह अतीन्द्रियज्ञान, जिसके द्वारा केवल मूर्त द्रव्यों का साक्षात् ग्रहण होता है, जैसे अवधिज्ञान, मनः पर्यवज्ञान । मइसुइ परोक्खणाणं ओहीमणं होइ वियलपच्चक्खं । (नच १७० ) विकलादेश नयवाक्य - एक धर्म का प्रतिपादन करने वाला वचन । विकलादेशो नयाधीनः । ( तवा ४.४२.१३) निरंशस्यापि गुणभेदादंशकल्पना विकलादेशः । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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