Book Title: Jain Paribhashika Shabdakosha
Author(s): Tulsi Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 291
________________ २७४ जैन पारिभाषिक शब्दकोश वैजयन्त अनुत्तरविमान का द्वितीय स्वर्ग। (द्र अपराजित) (तभा ४.२०) वैतरणी परमाधार्मिक देव का एक प्रकार। वे नरकपाल देव, जो नारक जीवों को पीब, रुधिर, केश व हड्डियों से भरी अत्युष्ण । पानी वाली वैतरणी' नामक महाभयानक नदी में बहाते हैं। पूय-रुहिर-केसट्ठी, वाहिणी कलकलंतजलसोया। वेयरणिनरयपाला, नेरइए ऊ पवाहेंति॥ (सूत्रनि ८०) वैतादयगिरि वह पर्वत, जहां विद्याधर रहते हैं और जिससे भरतक्षेत्र दो भागों में विभक्त है-दक्षिण भरत और उत्तर भरत। भरतक्षेत्रमध्ये पूर्वापरायत उभयत: समुद्रमवगाढो वैताढ्यपर्वतः, षड्योजनानि सक्रोशानि धरणिमवगाढः पञ्चाशद् विस्तरतः पञ्चविंशत्युच्छ्रितः॥वैताढ्यपर्वतो दक्षिणोत्तरार्धविभागकारी विद्याधराधिवासः। (तभा ३.११ वृ पृ २५६) प्रति होने वाली विनम्रता से उत्पन्न बुद्धि, जो भार के निर्वाह में समर्थ, त्रिवर्ग के सूत्र और अर्थ का सार ग्रहण करने वाली तथा उभयलोक फलवती होती है। विनयो-गुरुशुश्रूषा सप्रयोजनमस्या इति वैनयिकी। (नंदीमवृ प १४४) भरनित्थरणसमत्था, तिवग्गसुत्तत्थगहियपेयाला। उभओलोगफलवई, विणयसमुत्था हवइ बुद्धी॥ (नंदी ३८.५) २. वह बुद्धि, जो परोपदेश अथवा शिक्षा से उत्पन्न होती है। विणएण दुवालसंगाइं पढंतस्सुप्पण्णपण्णा वेणइया णाम, परोवदेसेण जादपण्णा वा। (धव पु९ पृ८२) वैमानिक देव देवनिकाय का चौथा प्रकार। वह देवनिकाय, जो विशिष्ट वैक्रिय शक्ति और ऐश्वर्य सम्पन्न होता है तथा जिसका आवास क्षेत्र ऊर्ध्वलोकवर्ती विमान हैं। (उ ३६.२०४) विमानेषु-ऊर्ध्वलोकवर्त्तिषु भवाः वैमानिकाः सौधर्मादिवासिनः। (स्थावृ प ६२) विशेषेणात्मस्थान् सुकृतिनो मानयन्तीति विमानानि, विमानेषु भवा वैमानिकाः। (तवा ४.१६.१) वैदारणिका क्रिया (स्था २.२९) (द्र विदारणाक्रिया) वैदिक व्यवसाय वेद के आधार पर किया जाने वाला निश्चय और अनुष्ठान। (स्था ३.३९५) (द्र व्यवसाय) वैधर्म्य दृष्टांत जहां साध्य के अभाव में साधन का अभाव निश्चित रूप से प्रदर्शित होता है, जैसे-अग्नि के अभाव में धआं नहीं होता, जैसे-जलाशय। यत्र तु साध्याभावे साधनस्यावश्यमभावः प्रदर्श्यते, स वैधHदृष्टान्तः। (प्रनत ३.४७) यथाग्न्यभावे न भवत्येव धूमो, यथा जलाशये। (प्रनत ३.४८) वैयावृत्त्य आभ्यन्तर तप का एक प्रकार । दूसरों (संयमीवर्ग) का सहयोग करने के लिए व्याप्त होना। परार्थव्यापृतिर्वैयावृत्त्यम्। (जैसिदी ६.३९) वैयावृत्त्यसंभोज सांभोजिक साधुओं के पारस्परिक व्यवहार का एक प्रकार। आहार, उपधि आदि देना, मत्र आदि का परिष्ठापन करना, कलह का उपशमन करना एवं वृद्ध आदि साधुओं की सेवा करना। 'वेयावच्चकरणे.'त्ति वैयावृत्त्यम्-आहारोपधिदानादिना प्रश्रवणादिमात्रकार्पणादिनाऽधिकरणोपशमनेन सहायदानेन वोपष्टम्भकरणं तस्मिंश्च विषये सम्भोगासम्भोगौ भवत इति। (सम १२.२ वृ प २२) वैश्रमणोपपात कालिक श्रुत का एक प्रकार, जिसमें वैश्रमण नामक देव की वक्तव्यता है तथा जिसका परावर्तन करने से वैश्रमण नामक वैनयिकी बुद्धि १. अश्रूतनिश्रित मतिज्ञान का एक प्रकार । ज्ञान और ज्ञानी के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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