Book Title: Jain Paribhashika Shabdakosha
Author(s): Tulsi Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 287
________________ २७० जैन पारिभाषिक शब्दकोश प्रदेशों की संरचना-यह अनादि विरसा बंध है। २. परमाणुओं का स्कंध के रूप में निर्माण तथा परमाणस्कंधों का बादल आदि के रूप में परिणमन-यह सादि विस्त्रसा बंध है। धम्मत्थिकायअण्णमण्णअणादीयवीससाबंधे, अधम्मत्थिकायअण्णमण्णअणादीयवीससाबंधे, आगासस्थिकायअण्णमण्णअणादीयवीससाबंधे। बंधणपच्चइए-जण्णं परमाणुपोग्गलदुप्पदेसिय .... अणंतपदे-सियाणं खंधाणं बंधे॥ परिणामपच्चइए-जणं अब्भाणं, अब्भरुक्खाणं"बंधे.॥ (भग ८.३४७,३५१,३५३) य दट्ठव्वा, एतेसिं सवित्थरो विधी जत्थ अज्झयणे (वण्णिज्जति) तमज्झयणं विहारकप्पो। (नन्दी ७७ चू १५८) विहारभूमि वह स्थान, जो मुनि के स्वाध्याय के लिए नियत है। 'विहारभूमौ' स्वाध्यायभूमौ। (बृभा ३२१८ वृ) विहारविकटन बल-वीर्य होने पर भी तप-उपधान आदि में उद्यम न करने की आलोचना। संतम्मि य बलविरिए, तवोवहाणम्मि जं न उज्जमियं। इस विहारवियडणा,"॥ (निभा ६३२२) वीचिपथ वह मार्ग, जिसका अनुसरण करने वाला जीव कषाययुक्त होता है। कषायाणां जीवस्य च सम्बन्धो वीचिशब्दवाच्यः ततश्च वीचिमतः कषायवतो. पंथे'त्ति मार्गे। (भग १०.११७) विहायोगति १. जीव और पुद्गल की गतिक्रिया। इसके स्पृशद्गति आदि सत्रह प्रकार हैं। विहायगती सत्तरसविहा पण्णत्ता, तं जहा-फुसमाणगती अफुसमाणगती उवसंपज्जमाणगती अणुवसंपज्जमाणगती पोग्गलगती मंडयगतीणावागतीणयगती छायागती छायाणवायगती लेसागती लेस्साणुवायगती उद्दिस्सपविभत्तगती चउपुरिसपविभत्तगती वंकगती पंकगती बंधणविमोयणगती। (प्रज्ञा १६.३८) २. नाम कर्म की एक प्रकृति, जिसके उदय से जीव गमन करता है। आकाशगमन और उडने में भी इसका योग रहता विहायसा-नभसा गतिः-प्रवृत्तिर्विहायोगतिः।"प्रशस्ता हंसहस्तिवृषभादीनां, अप्रशस्ता तु खरोष्ट्रमहिषादीनामिति। (प्रसा वृ प ३६५) विहार आलोचना वीजन मुनि के लिए अनाचार का एक प्रकार । पंखे आदि से हवा लेना। वीजनं तालवृन्तादिना धर्म एव। (द ३.२ हावृ प ११७) वीतराग वह मुनि, जिसके राग-द्वेष सर्वथा उपशांत अथवा क्षीण हो चुके हैं। वीयरागचरित्तारिया दुविहा पण्णत्ता, तं जहा-उवसंतकसायवीयरागचरित्तारिया य खीणकसायवीयरागचरित्तारिया य॥ (प्रज्ञा १.११५) मोहणीयक्खएण वीयराओ। (धव पु९ पृ११८) वीतरागश्रुत उत्कालिक श्रृत का एक प्रकार, जिसमें मुख्यतया वीतराग के स्वरूप का विवेचन है। सरागो वीतरागो य एतेसिं जत्थ सरूवकहणा, विसेसतो वीतरागस्स, तमज्झयणं वीतरागसुतं। (नन्दी ७७ चू पृ५८) वीतरागसंयम उपशांत या क्षीण कषाय वाले मुनि का संयम। (निभा ६३२२) (द्र विहारविकटन) विहारकल्प उत्कालिक श्रुत का एक प्रकार, जिसमें जिनकल्प, स्थविरकल्प, प्रतिमाधारी, यथालन्दक और पारिहारिक-मुनि की इन पांचों श्रेणियों का कल्प विस्तार से प्रतिपादित है। विहरणं विहारो, तस्स कप्पो-विधि त्ति वुत्तं भवति, सो जिणकप्पे थेरकप्पेवा, जिणकप्पे पडिम-अहालंद-परिहारिया Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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