Book Title: Jain Paribhashika Shabdakosha
Author(s): Tulsi Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 286
________________ जैन पारिभाषिक शब्दकोश २६९ (उ १६ सूत्र ३) निग्गंथे। (द्र संसक्तशय्यासनवर्जन) विवृतयोनि वह उत्पत्ति स्थान, जो चौड़ा होता है। संवृता प्रच्छन्ना सङ्कटा वा। तद्विपरीता विवृता। (तभा २.३३ वृ) चासौ कोटिश्च-भेदश्च विशोधिकोटिः। (पिनिवृ प ११७) आधाकर्म, औद्देशिकत्रिकं, पूतिकर्म, मिश्रजातं, बादरप्राभृतिका, अध्यवपूरश्चैते षडुद्गमदोषा अविशुद्धकोट्यन्तर्गता गृहीताः शेषास्तु विशुद्धकोट्यन्तर्भूताः । (आवृ प ११९) विवेक शुक्लध्यान का एक लक्षण। शरीर और आत्मा के भेद का ज्ञान। देहादात्मन आत्मनो वा सर्वसंयोगानां विवेचनं-बुद्धया पृथक्करणं विवेकः। (स्था ४.७० वृप १८१) विश्रेणि वह आकाशश्रेणि, जो विदिशा में आश्रित होती है। 'विसेढि'त्ति विरुद्धा विदिगाश्रिता श्रेणी यत्र तद्विश्रेणि"। (भग. २५.९२ वृ प ८६८) विषय राग राग का एक प्रकार। कामराग, शब्द आदि इन्द्रियविषयों में अनुराग। (विभा २९६४, २९६५) (द्र राग) विवेकप्रतिमा प्रतिमा का एक प्रकार। आत्मा और पुद्गल का भेदज्ञान कराने वाली प्रतिमा, जिसमें साधक आत्मा से क्रोध, मान, माया और लोभ की भिन्नता का अनचिंतन करता है। (स्था २.२४४) विवेकप्रायश्चित्त प्रायश्चित्त का एक प्रकार। उद्गम आदि दोषों से अशुद्ध आहार आदि ग्रहण करने के पश्चात् जानकारी होने पर उस आहार का विसर्जन करना। आहारातीणं उग्गमादिअसुद्धाणं गहिताणं पच्छा विण्णाताणं संपत्ताणं वा विवेगो परिच्चागो। (आव २ प २४६) विषवाणिज्य कर्मादान का एक प्रकार । सांप, बिच्छू आदि के विष का तथा शस्त्र का विक्रय। विसवाणिज्जं भन्नइ विसलोहप्पाणहणणविक्किणणं। धणुह-सरखग्ग-छुरिआ-परसुय-कुद्दालियाईणं॥ (प्रसावृ प ६२) विसाम्भोजिक संभोज का अतिक्रमण करने पर जिस मुनि का सभी मंडलियों से संबंध विच्छेद कर दिया गया हो। विसाम्भोगिकं-मण्डलीबाह्यम्। (स्था ९.२ ७ प २८५) विशेष वह धर्म, जो भेदप्रतीति का निमित्त बनता है, जो सब द्रव्यों में सामान्य रूप से उपलब्ध नहीं होता है, जिसके आधार पर द्रव्य की स्वतन्त्र सत्ता सिद्ध होती है। भेदप्रतीतेर्निमित्तं विशेषः। (भिक्षु ६.७) (द्र सामान्य) विस्ताररुचि १.रुचि का एक प्रकार। प्रमाण और नय की विविध भङ्गियों के बोध से उत्पन्न होने वाली रुचि। २. विस्ताररुचिसम्पन्न व्यक्ति। दव्वाण सव्वभावा सव्वपमाणेहि जस्स उवलद्धा। सव्वाहि नयविहीहि य वित्थाररुड त्ति नायव्वो॥ (उ २८.२४) विशोधिकोटि वे उद्गम दोष, जिनका किसी स्थिति में शोधन हो सकता है, जिनसे दूषित आहार आदि को पृथक् कर देने पर शेष आहार आदि शुद्ध हो जाते हैं, जैसे-क्रीतकृत आदि। विशुध्यति शेषं शुद्धं भक्तं यस्मिन्नुभृते, यद्वा विशुध्यति पात्रमकृतकल्पत्रयमपि यस्मिन्नुज्झिते सा विशोधिः, सा वित्रसा बन्ध द्रव्य के प्रदेशों की स्वाभाविक संरचना। १. धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और आकाशास्तिकाय के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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