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जैन पारिभाषिक शब्दकोश
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वइरमझण्णं चंदपडिमं पडिवन्नस्स"पुण्णिमाए अभत्तटे भवइ।
(व्यभा १०.५)
आदि का व्यापार। वनकर्म यत् छिन्नानामच्छिन्नानां च तरुखण्डानां पत्राणां पुष्याणां फलानां च विक्रयणं वृत्तिकृते तद्वनकर्म।
(प्रसाव प ६२)
वज्रासन वीरासन की मुद्रा में बैठकर (दायां पैर बायें पैर पर, बायां पैर दायें पैर पर रखकर) पृष्ठ भाग में वज्राकृति में न्यस्त भुजाओं से दोनों पैरों के अंगूठों को पकड़ना। वामोंऽह्रिर्दक्षिणोरूवं, वामोरुपरि दक्षिणः। क्रियते यत्र तद्वीरोचितं वीरासनं स्मृतम्॥ पृष्ठे वज्राकृतीभूते दोा वीरासने सति। गृह्णीयात् पादयोर्यत्राङ्गष्ठौ वज्रासनं तु तत्॥
(योशा ४.१२७) उक्तस्वरूपे वीरासने सति पृष्ठे वज्राकाराभ्यां दोभा पादयोर्यत्राङ्गष्ठौ गृह्णीयात् तद् वज्रासनम्। इदं वेतालासनमित्यन्ये।
(योशावृ पृ९६०) (द्र वीरासन)
वनचारी देव व्यन्तर देव। वन, उपवन आदि अनेक स्थानों में क्रीड़ाप्रधान मनोवृत्ति के साथ विचरण करने वाला। वनेषु-विचित्रोपवनादिषूपलक्षणत्वादन्येषु च विविधास्पदेषु क्रीडैकरसतया चरितुं शीलमेषामिति वनचारिणः।
(उ ३६.२०५ शावृ प ७०१) (द्र वानमंतर)
वनस्पतिकाय जीवनिकाय का पांचवां प्रकार। (द्र वनस्पतिकायिक)
(आचूला १५.४२)
वध
वनस्पतिकायिक १. वह प्रवृत्ति, जिसके द्वारा दूसरे के प्राण का वियोजन वे जीव, जिनका शरीर वनस्पति है। किया जाता है, दु:ख और संक्लेश उत्पन्न किया जाता है। वनस्पतिः-लतादिरूपः प्रतीतः, स एव काय:-शरीरं येषां विनाशपरितापसंक्लेशभेदात् त्रिविधो वा, आह च
ते वनस्पतिकायाः, वनस्पतिकाया एव वनस्पतिकायिकाः। तप्पज्जायविणासो दुक्खुप्पाओ य संकिलेसो य।
(द ४ सूत्र ३ हावृ प १३८) एस वहो जिणभणिओ वज्जेयव्वो पयत्तेणं॥
वनीपकपिण्ड (स्था १.९३ वृ प २४) २. स्थूलप्राणातिपातविरमण व्रत का एक अतिचार। अपने
उत्पादन दोष का एक प्रकार। जो दाता जिस आम्नाय का आश्रित पशु अथवा कर्मकर को लाठी आदि से पीटना।
अनुयायी है, उसकी प्रशंसा कर भिक्षा लेना। 'वहे' त्ति वधो यष्ट्यादिभिस्ताडनम्।
श्रमण-ब्राह्मण-कृपणाऽतिथि-श्वानादिभक्तानां पुरतः
पिण्डार्थमात्मानं तत्तभक्तं दर्शयतो वनीपकपिण्डः। (उपा १.३२ वृ पृ १०)
(योशा १.३८ वृ पृ १३५) वध परीषह
वन्दना परीषह का एक प्रकार। प्रहार से उत्पन्न वेदना, जो मनि के
१. आचार्य आदि के योग्य उचित आदर-सत्कार युक्त व्यवहार द्वारा समभावपूर्वक सहनीय है।
का प्रयोग। हओ न संजले भिक्खू, मणं पि न पओसए। तितिक्खं परमं नच्चा, भिक्खुधम्मं विचिंतए।
'वन्दनकेन' आचार्याधुचितप्रतिपत्तिरूपेण। समणं संजयं दंतं, हणेज्जा कोइ कत्थई।
__ (उ २९.११ शावृ प ५८०) नस्थि जीवस्स नासु त्ति, एवं पेहेन्ज संजए॥
(द्र कृतिकर्म) (उ २.२६,२७)
२. आवश्यक का तृतीय अध्ययन। चारित्र सम्पन्न गुणिजनों
का वन्दना-नमस्कार द्वारा सम्मान-बहुमान करना। प्रशस्त वनकर्म
मन, वचन और काया के द्वारा स्तुति करना, अभिवन्दना कर्मादान का एक प्रकार। जंगल की कटाई और लकड़ी
करना।
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