Book Title: Jain Paribhashika Shabdakosha
Author(s): Tulsi Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 271
________________ २५४ जैन पारिभाषिक शब्दकोश खड़ा होना, हाथ जोड़ना आदि। लोभविजय लोकानामुपचारो-व्यवहारस्तेन स एव वा विनयो लोको- लोभ करने से लोभ का अंत नहीं होता, उसका परिणाम भी पचारविनयः। (स्था ७.१३० वृ प ३८८) अच्छा नहीं होता-इस प्रकार के चिन्तन से किया जाने २. सुखद व्यवहार का प्रयोग करना (गुरु के अभिप्राय का वाला लोभ के उदय का निरोध । अनुवर्तन करना आदि)। क्रोधस्य विजयो दुरन्तादिपरिभावनेनोदयनिरोधः क्रोधविजयः उपचारेण सुखकारिक्रियाविशेषण निर्वृत्त औपचारिकः स "एवं"लोभविजयेन"। (उ २९.७१ शाव प५९३) चासौ विनयश्च औपचारिकविनयः। (प्रसावृ प ६८) लोभविवेक लोभ सत्य महाव्रत की एक भावना। लोभ का विवेक-प्रत्याख्यान कषाय का एक प्रकार । आत्मा का वह अध्यवसाय, जो तृष्णा करना। और परिग्रह से उत्पन्न होता है। लोभः तृष्णालक्षण: कूटसाक्षित्वादिदोषाणामग्रणीः समस्ततृष्णापरिग्रहाध्यवसायो लोभः। (आभा ३.७१) व्यसनैकराजो जलनिधिरिव दुर्भरः कर्मोदयाविर्भूतो रागलोभ पाप परिणामस्तदुदयादपि वितथभाषी भवति। अत्र सत्यव्रतमनु पालयता तदाकारपरिणामः प्रत्याख्येय इति भावनीयम्। पापकर्म का नौवां प्रकार। लोभ की प्रवृत्ति से होने वाला (तभा ७.३ वृ) अशुभ कर्म का बंध। (आवृ प ७२) लोभ पापस्थान लोभसंज्ञा लोभ वेदनीय कर्म के उदय से होने वाला आसक्त्यात्मक वह कर्म, जिसके उदय से जीव लोभ में प्रवृत्त होता है। संवेदन। (द्र मान पापस्थान) लोभवेदनीयोदयतो लालसत्वेन सचित्तेतरद्रव्यप्रार्थना लोभलोभपिण्ड सञ्जा। (प्रज्ञा ८.१ १ प २२२) उत्पादनदोष का एक प्रकार। मूर्छावश प्रचुरमात्रा में स्निग्ध लोल और मधुर भोजन ग्रहण करना। प्रतिलेखना का एक दोष । प्रतिलेख्यमान वस्त्र का हाथ या यथाभावं-लभ्यमानं खद्धं-प्रचुरं स्निग्धादि' लपनात्री भूमि से संघर्षण करना। प्रभृतिकं भद्रकरसमितिकृत्वा यद गह्णाति स लोभपिण्डः। (पिनि ४८१ वृ) लोलो-यभूमौ करे वा प्रत्युपेक्ष्यमाणवस्त्रस्य लोलनम्। (उ २६.२७ शावृ प ५४१) अतिलोभाद भिक्षार्थं पर्यटतो लोभपिण्डः। (योशा १.३८ वृ पृ १३५) लौकान्तिक पांचवें देवलोक में देवों का एक विशेष वर्ग, जो कृष्णराजियों लोभप्रत्यय के आठ अवकाशांतरों में विद्यमान लौकान्तिक विमानों में क्रियास्थान का एक प्रकार । जीवनैषणा और कामभोगैषणा रहता है। यह देववर्ग अनन्तर भव में मुक्त हो जाता है। की मनोवृत्ति और प्रवृत्ति। ब्रह्मलोको लोकः, तस्यान्तो लोकान्तः, तस्मिन्भवा लौकाजे इमे भवंति आरण्णिया"अहं ण उद्दवेयव्वो अण्णे न्तिकाः। (ससि ४.२४) उद्दवेयव्वा। एवामेव ते इत्थिकामेहिं मुच्छिया""एवं खलु -लोकान्ते वा औदयिकभावलोकावसाने भवा अनन्तरभवे तस्स तप्पत्तियं सावजं ति आहिज्जइ। (सूत्र २.२.१४) मुक्तिगमनादिति लोकान्तिकाः। (स्था ३.८६ वृप १११) लोभप्रत्यया क्रिया एएसि णं अट्ठण्हं कण्हराईणं अट्ठसु ओवासंतरेसु अट्ठ लोगप्रेयस प्रत्यया क्रिया का एक प्रकार । लोभ के निमित्त से होने तिगविपाणा पण्णत्ता"। (भग ६.१०६) वाली क्रिया। (स्था २.३६) एएसुणं अट्ठसु लोगंतियविमाणेसु अविहा लोगंतिया देवा परिवसंति"। (भग ६.११०) For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International

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